Friday, May 24, 2013

अनुपस्थिति

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मेरी अनुपस्थिति को
दर्ज किया गया मेरे स्मारक में
और मुझे दे दी गयी आकृति
एक नवीनतम कलेवर में 
 
नहीं देख पाती इन पथरीली आँखों से अब
प्रचण्ड रौशनी में विचरते असीम अन्धकार  को
और चेतन के स्वर हलक में फंसे रह जाते हैं
ढूंढते हैं प्रतिपल माध्यम, भरने चित्कार को
 
सुनाई दे रही है कहीं पास से, राग विहाग की तान
और निस्तेज आँखे घूर रही हैं घर के दरवाजे को
प्रतीक्षारत हूँ ; खुले घर के दरवाजे
और मैं समेट लूँ अपने बिखरे पड़े अतीत को
 
फिर प्रवेश करती हूँ घर में, बिना जड़ की "मैं"
देखती हूँ , मुरझा गये हैं तमाम गमलों के पौधे
जिन्हे मैं सिंचा करती थी घंटों अनुराग से
और पत्तियों के हाथ पीले हो गये इस पतझड़ में
 
नही गूंजती कलरव अब इस घर के आँगन में 
ना दाना देनेवाला है,  ना खानेवाले परिंदे
बस एक पुराना सा पिंज़डा पड़ा है कोने मे
मेरे चेतन की तरह जिसके दरवाजे है खुले
 
आह ! जब उड़े थे मेरे प्राण पखेरू
तब हुआ था औरों का भी देहवसान
अब जब खरखराते हैं सूखे पीले पत्ते
मुझे होता है "मेरे" होने का भान 
 
सुलोचना वर्मा

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