Tuesday, May 12, 2015

इक्कीसवीं सदी का मानव

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उसे दंभ है अपनी सहन शक्ति पर
कि वह झेल सकता है असंख्य पीड़ा
और निहार सकता है सहचरों के बदन से रिसता खून
बिना व्यक्त किये हुए कोई भी प्रतिक्रिया
और रह सकता है बिलकुल ही सहज
फिर दे सकता है वह वर्तमान के झूठ की गवाही 
अतीत के ही किसी गुप्त दरवाजे से

वह पड़ा रह सकता है बधिरों की तरह सुनते हुए
और भूल सकता है आँखों देखी घटनाएँ भी
वह कर सकता है प्रेम का भी विनिमय पैसों से
पाया गया है ऐसा विगत कुछ वर्षों में
कि गिरा है पैसा जब-जब मूल्य सूचकांक पर
साथ ही थोड़ा-थोड़ा वह भी गिरा है


गिरने से टूट गयी है उसकी हिम्मत
बिखर गया है उसका स्वाभिमान 
सिल गया है उसका विवेक
और क्षीण हुई कई अन्य क्षमताएँ भी|


--------सुलोचना वर्मा -----------------

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