Monday, March 5, 2018

शंख घोष की कविताएँ

1. त्रिताल
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तुम्हारा कोई धर्म नहीं है, सिर्फ
जड़ से कसकर पकड़ने के सिवाय
तुम्हारा कोई धर्म नहीं है, सिर्फ
सीने पर कुठार सहन करने के सिवाय
पाताल का मुख अचानक खुल जाने की स्थिति में
दोनों ओर हाथ फैलाने के सिवाय
तुम्हारा कोई धर्म नहीं है,
इस शून्यता को भरने के सिवाय |
श्मशान से फेंक देता है श्‍मशान
तुम्हारे ही शरीर को टुकड़ों में
दुःसमय तब तुम जानते हो
ज्वाला नहीं, जीवन बुनता है जरी |
तुम्हारा कोई धर्म नहीं है उस वक़्त
प्रहर जुड़ा त्रिताल सिर्फ गुँथा
मद्य पीकर तो मत्त होते सब
सिर्फ कवि ही होता है अपने दम पर मत्त

2. जन्मदिन
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तुम्हारे जन्मदिन पर और क्या दूँगा इस वायदे के सिवा
कि फिर हमारी मुलाक़ात होगी कभी
होगी मुलाक़ात तुलसी चौरे पर, होगी मुलाक़ात बाँस के पुल पर
होगी मुलाक़ात सुपाड़ी वन के किनारे
हम घूमते फिरेंगे शहर में डामर की टूटी सड़कों पर
दहकते दोपहर में या अविश्वास की रात में
लेकिन हमें घेरे रहेंगी कितनी अदृश्य सुतनुका हवाएँ
उस तुलसी या पुल या सुपाड़ी की
हाथ उठाकर कहूँगा, यह रहा, ऐसा ही, सिर्फ
दो-एक तकलीफ बाकी रह गया आज भी
जब जाने का समय हो आए, आँखों की चाहनाओं से भिगो लूँगा आँख
सीने पर छू जाऊँगा ऊँगली का एक पंख
जैसे कि हमारे सामने कहीं भी और कोई अपघात नहीं
मृत्यु नहीं दिगंत अवधि
तुम्हारे जन्मदिन पर और क्या दूँगा इस वायदे के सिवा कि
कल से हर रोज़ होगा मेरा जन्मदिन |

3. जल

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क्या जल समझता है तुम्हारी किसी व्यथा को? फिर क्यों, फिर क्यों
जाओगे तुम जल में क्यों छोड़ गहन की सजलता को?
क्या जल तुम्हारे सीने में देता है दर्द? फिर क्यों, फिर क्यों
क्यों छोड़ जाना चाहते हो दिन रात का जलभार?

4. कलकत्ता

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हे बापजान
कलकत्ता जाकर देखा हर कोई जानता है सब कुछ
सिर्फ मैं ही कुछ नहीं जानता
मुझे कोई पूछता नहीं था
कलकत्ता की सड़कों पर भले ही सब दुष्ट हों
खुद तो कोई भी दुष्ट नहीं

कलकत्ता की लाश में
जिसकी ओर देखता हूँ उसके ही मुँह पर है आदिकाल का ठहरा हुआ पोखर
जिसमें तैरते हैं सड़े शैवाल

ओ सोना बीबी अमीना
मुझे तू बाँधी रखना
जीवन भर मैं तो अब नहीं जाऊँगा कलकत्ता

5, बाउल
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कहा था तुम्हें लेकर जाऊँगा दूर के दूसरे देश में
सोचता हूँ वह बात
दौड़ती रहती है दूर-दूर तक जीवन की वह सातों माया
सोचता हूँ वह बात
तकती रहती है पृथ्वी, तुमसे हार मानकर वह
बचेगी कैसे !
जहाँ भी जाओ अतृप्ति और तृप्ति दोनों चलती है जोड़े में
सदर में - अंदर में
उदासीन नहीं कुछ से-- समझ सकता हूँ तुम्हारे सीने में
है कुछ और,
यंत्रणा खोलती है उसका ह्रदय फेरों में, उस खुलने का
है अर्थ कुछ और |
नींद में देखता हूँ प्रकाश के पूर्ण- कुसुम नीलांशु को
नहीं बाँध सकता है यह
जगते ही देखता हूँ कितनी विचित्र बात है, एक भी खरोंच नहीं लगी
उसके प्रेम की देह पर
कहा था तुम्हें मैं फैला दूँगा दूर हवा में
सोचता हूँ वह बात
तुम्हारे सीने के अन्धकार में बजा है सुख मदमत्त हाथों से
सोचता हूँ वह बात


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ত্রিতাল
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তোমার কোনো ধর্ম নেই, শুধু
শিকড় দিয়ে আঁকড়ে ধরা ছাড়া
তোমার কোনো ধর্ম নেই, শুধু
বুকে কুঠার সইতে পারা ছাড়া
পাতালমুখ হঠাত্ খুলে গেলে
দুধারে হাত ছড়িয়ে দেওয়া ছাড়া
তোমার কোনো ধর্ম নেই, এই
শূন্যতাকে ভরিয়ে দেওয়া ছাড়া।
শ্মশান থেকে শ্মশানে দেয় ছুঁড়ে
তোমারই ঐ টুকরো-করা-শরীর
দু:সময়ে তখন তুমি জানো
হলকা নয়, জীবন বোনে জরি।
তোমার কোনো ধর্ম নেই তখন
প্রহরজোড়া ত্রিতাল শুধু গাঁথা-
মদ খেয়ে তো মাতাল হত সবাই
কবিই শুধু নিজের জোরে মাতাল !


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জন্মদিন
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তোমার জন্মদিনে কী আর দেব এই কথাটুকু ছাড়া
আবার আমাদের দেখা হবে কখনো
দেখা হবে তুলসীতলায় দেখা হবে বাঁশের সাঁকোয়
দেখা হবে সুপুরি বনের কিনারে
আমরা ঘুরে বেড়াবো শহরের ভাঙা অ্যাসফল্টে অ্যাসফল্টে
গনগনে দুপুরে কিংবা অবিশ্বাসের রাতে
কিন্তু আমাদের ঘিরে থাকবে অদৃশ্য কত সুতনুকা হাওয়া
ওই তুলসী কিংবা সাঁকোর কিংবা সুপুরির
হাত তুলে নিয়ে বলব, এই তো, এইরকমই, শুধু
দু-একটা ব্যথা বাকি রয়ে গেল আজও
যাবার সময় হলে চোখের চাওয়ায় ভিজিয়ে নেবো চোখ
বুকের ওপর ছুঁয়ে যাবো আঙুলের একটি পালক
যেন আমাদের সামনে কোথাও কোনো অপঘাত নেই আর
মৃত্যু নেই দিগন্ত অবধি
তোমার জন্মদিনে কী আর দেবো শুধু এই কথাটুকু ছাড়া যে
কাল থেকে রোজই আমার জন্মদিন।


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জল ~

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জল কি তোমার কোনো ব্যথা বোঝে ? তবে কেন, তবে কেন
জলে কেন যাবে তুমি নিবিড়ের সজলতা ছেড়ে ?
জল কি তোমার বুকে ব্যথা দেয় ? তবে কেন তবে কেন
কেন ছেড়ে যেতে চাও দিনের রাতের জলভার ?


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কইলকাত্তায়
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বাপজান হে
কইলকাত্তায় গিয়া দেখি সক্কলেই সব জানে
আমিই কিছু জানি না
আমারে কেহ পুছত না
কইলকাত্তার পথে ঘাটে সবাই দুষ্ট বটে
নিজে তো কেউ দুষ্ট না

কইলকাত্তার লাশে
যার দিকে চাই তারই মুখে আদ্যিকালের মজা পুকুর
শ্যাওলপচা ভাসে

অ সোনাবৌ আমিনা
আমারে তুই বাইন্দা রাখিস,
জীবন ভইরা আমি তো আর কইলকাত্তায় যামু না



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বাউল
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বলেছিলাম তোমায় নিয়ে যাব অন্য দূরের দেশে
সেই কথাটা ভাবি,
জীবনের ওই সাতটা মায়া দূরে দূরে দৌড়ে বেড়ায়
সেই কথাটা ভাবি,
তাকিয়ে থাকে পৃথিবীটা, তোমার কাছে হার মেনে সে
বাঁচবে কেমন ক'রে !
যেখানে যাও অতৃপ্তি আর তৃপ্তি দুটো জোড়ায় জোড়ায়
সদরে - অন্দরে
উদাসিনী নও কিছুতে --- বুঝতে পারি তোমার বুকে
অন্য কিছু আছে,
যন্ত্রণা তার পাকে পাকে হৃদয় খোলে, সে খোলাটার
অন্য মানে আছে।
ঘুমের মাধ্যে দেখি আলোর ভরা-কুসুম নিলাংশুকে
বাঁধতে পারে না এ :
উঠেই দেখি কী বিচিত্র, একটি আঁচড় লাগে নি তার
ভালোবাসার গায়ে !
বলেছিলাম তোমায় আমি ছড়িয়ে দেব দূর হাওয়াতে
সেই কথাটা ভাবি
তোমার বুকের অন্ধকারে সুখ বেজেছে মদির হাতে
সেই কথাটা ভাবি ।।

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