Monday, March 5, 2018

पोलियर वाहिद की कविताएँ

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1. शोक

बीते हुए समय की मानिंद
समस्त शोक परिवर्तित हो जाता है भ्रम में
चढ़ाकर रखती है लेप जहर का
इतिहास के अंतिम पन्ने पर रानी!
सोये रहते हैं धुल से सने हुए
गोली के शब्द से मुखर, अप्रस्तुत शोक!

चला जा रहा है मुँह बनाकर ही
अवैध समय!

2. बुलेट 

प्रिय
तुम्हें पता है?
प्रतिदिन सपने में
मेरा पीछा करता है
एक राष्ट्रीय श्वान

मैं बार-बार देखता हूँ दुस्वप्न.....

3. विरोधी स्वप्न 

आज सपने में देखा
खालदे नाम की स्त्री
मुझसे करती है प्रेम!
और इस अपराध में
जलकर राख हो गयी है
हसीना, मेरी पूर्व प्रेमिका!
हाय!
नहीं है इस नाम की मेरी कोई भी प्रेमिका!

4. अवैध समय की संतान 

एक अवैध समय में हुआ मेरा जन्म

जब महत्वपूर्ण हो गया समस्त पृथ्वी में

मन से कहीं अधिक शरीर

और मैं भय से सिहर उठा !

दुधमुंहा संतान जब कर देता है हत्या माँ की

और अपने ही बच्चे माँ को करते हैं कब्र के सुपुर्द

उस दिन से हो जाता है स्नायु अचल....



कुंद होती अनुभूतियां कितने ही पुराने कपड़ों में क्यूँ ना जमा हो

समय के हाथ में वह पहुँचा देगा उत्कट गंध



देखो, हरियाली की हत्या कर बन गया है इंसानों का घर

मिट्टी छोड़ इंसान पैर जमा रहा है आकाश में

ठीक है, लेकिन कोई नहीं रख रहा याद

कि वह भी है प्रकृति की ही संतान



जिस दिन श्रद्धा का पैमाना तब्दील हुआ रुपयों में

जिस दिन पिता का स्नेह भी सन्तान ने तौल दिया तराजू में

ऐसा कि ईश्वर भी हमें जाता देख रोया

प्रेम का पैगम्बर सजदे के बाद भी जब नहीं उठा आज

तब मुझे महसूस हुआ

कि हम हैं इस अवैध समय की संतान!



दो भागों में बंटें हुए हैं इंसान

जिन्हें आज भी बताया जाता है सफ़ेद और काले का अंतर

जो पूजे जा रहे हैं मानविकता के गुणगान पर

उन्ही के हाथों हुई ध्वंश पृथ्वी

तब नहीं रहा कोई भी सामियाना हमारे पास

फिर भी देखो, बबूल में फूल खिले हैं

भाभी की नथ की तरह आयोजित कर

इस कविता में आ सकता था गुलमोहर का विवरण



क्या विडंबना है!

इस कविता को भी लिख गया समय?

फिर भी इस स्वप्न को देखकर जी रहा हूँ

कि पति को घर पर छोड़ आज भी भाग रही है कहीं कोई स्त्री

अपने पूर्व प्रेमी के पास ....

शायद पृथ्वी बची है इसी निश्वास में

मैं तो कवि हूँ , इसीलिए ऐसा प्रेम

 है आज भी बचा विश्वास में ...

5. मृत्यु का निर्भूल क्षण 

ठीक जिस समय मैं लिख रहा हूँ यह कविता
बसंतकाल है!
लेकिन मेरे भीतर हो रही है प्रवाहित
रूखी मानवता!!

मुझे पसंद है मृत्यु
जैसे कि पता है मुझे मृत्यु का निर्भूल क्षण!!

बर्तनी की गलती के इस समय में
जल रहा है दीर्घश्वास का जंगल  

समर्पित स्त्रियों ने फिर भी
नहीं किया प्रेम कभी!
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1. শোক

সমস্ত শোকেরা গতকালের মতোন
ইলুশন হয়ে যায়। ইতিহাস লেখা
শেষক্ত পৃষ্টায় বিষ মাখিয়ে রাখেন
রাণী!
গুলির শব্দে মুখর, অপ্রস্তুত
শোকগুলো ধুলোবালি ছেড়ে শুয়ে থাকে!

মুখ গোমড়া করেই
বয়ে যাচ্ছে অবৈধ সময়!

2. বুলেট

      প্রিয়
          জানো?
         প্রতিদিন
       একটি রাষ্ট্রীয়
       কুকুর; আমাকে
       স্বপ্নঘোরে তাড়া
        করে ফেরে!
         বারবার
          দুঃস্বপ্ন
          ভাবি..

3. বিরোধী স্বপ্ন

আজ স্বপ্ন দেখলাম
খালদে নামের এক নারী
আমাকে ভালোবাসেন!
এই অপরাধে প্রাক্তন প্রেমিকা
হাসিনা জ্বলে ছাই!
হায়!
এমন নামের কোনো প্রেমিকা আমার নাই!

4. অবৈধ সময়ের সন্তান

একটা অবৈধ সময়ে আমার জন্ম
যখন সারা পৃথিবীতে মনের চেয়ে
শারীল মূখ্য হয়ে ওঠে
আর ভয়ে কুকড়ে উঠি আমি!
দুধের সন্তান যেদিন হত্যা করে ফেলে মা
আর আপন সন্তান কবরে গাড়ছে মাকে
যেদিন থেকে স্নায়ু অচল...

ভোঁতা অনুভূতিগুলো যতই পুরনো কাপড়ে জমায় না কেন
সময়ের হাতে সে পৌঁছে দেবে উৎকট গন্ধ

দ্যাখো সবুজকে খুন করে গড়ে উঠছে মানুষের আবাস
মাটি ছেড়ে মানুষ পাড়ি জমাচ্ছে আকাশে
সেও ভালো কিন্তু কেউ মনে রাখছে না
সেও যে প্রকৃতির সন্তান

যেদিন শ্রদ্ধা পরিমাপ হলো টাকার বদলায়
যেদিন বাবার স্নেহও সন্তান তুলে দিলো তুলাদÐ
এমন কি প্রভু আমাদের গমন দেখে ক্রন্দন করলো
প্রেমের নবী সিজদা থেকে আজো যখন উঠলো না
তখন আমার মনে হলো
আমরা এই অবৈধ সময়ের সন্তান!

দুভাগা সব মানুষ
যাদের কাছে সাদা কালোর পার্থক্য আজো সূচীত হয়
যারা মানবিকতার কথা বলে পূজিত হয়
তাদের হাতে ধ্বংস হলো পৃথিবী
তখন আমাদের কোনো সামিয়ানা থাকে না
তবু দ্যাখো বাবলার ফুল ফুটে আছে
ভাবির নথের মতো আয়োজন করে
এই কবিতায় আসতে পারতো কৃষ্ণচূড়ার বিবরণ

কি পরিহাস!
এই কবিতাও নির্মাণ করে দিলো সময়?
তবু এই স্বপ্ন দেখে বাঁচি যে
স্বামীকে ঘরে রেখে আজো পালায় কোনো কোনো স্ত্রী
তার সাবেক প্রেমিকার কাছে...
সম্ভবত পৃথিবী বেঁচে আছে এই নিঃশ্বাসে
আমি তো কবি তাই এমন প্রেম
আছে আজো এই বিশ্বাসে..

5. মৃত্যুর নির্ভুল ক্ষণ

এই কবিতাটি যখন লিখছি
তখন বসন্তকাল!
অথচ আমার ভেতরেই
প্রবাহিত হচ্ছে রুক্ষè মানবতা!!

আমি ভালোবসি মৃত্যু!
যেন দিন-ক্ষণ জানা আছে আমার নির্ভুল!!

বানান ভুলের এই
সময়ে পুড়ছে দীর্ঘশ্বাসের বন

উৎসর্গীত নারীরা তবু
বাসেনি কখনো ভালো!

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