Thursday, September 10, 2020

लिखूंगी

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मुझे माफ़ करना प्राण सखा,
नहीं लिख पाउंगी मैं कोई महान कविता !
मैं लिखूंगी विशाल पहाड़
तुम ठीक उस जगह झरने का संगीत सुनना |


मैं लिखूंगी अलौकिक सा कुछ, लिखूंगी छल और दुःख भी
मेरे अनुभवों में शामिल है दुधमुंहे शिशु के शरीर की गंध,
कई दिनों से प्रेमी के फ़ोन का इंतजार करती
प्रेम में डूबी प्रेमिका को देखा है मैंने
"सहेला रे" गाती हुए किशोरी अमोनकर को सुना है कई बार
देखा है बिन ब्याही माँ को प्रसव से ठीक पहले
अस्पताल के रजिस्टर पर बच्चे के बाप का नाम दर्ज़ करते
देखा है परमेश्वरी काका को बचपन में
छप्पड़ पर गमछे से तोता पकड़ते हुए
कोई और कैसे लिख पायेगा भला वो तमाम दास्ताँ !


बचपन में थी जो कविता मेरे पास,उसका रंग था सुगापंछी
उसकी आँखों में देखते ही होता था साक्षात्कार ईश्वर से
कविता कभी-कभी संत बनकर गुनगुनाने लगती -
"चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीड़....."
मेरी कविता का तेज था किसी सन्यासिनी की मानिंद
वह कर सकती थी तानसेन से भी जुगलबंदी
वह कर सकती थी वो तमाम बातें जिनके लिए
नहीं हैं मौज़ूद कोई भी शब्द अभिधान में
एक पिंजड़ा था जो सम्भालता था
स्मृतियों का ख़ज़ाना कई युगों का


मैं अब जो कविता लिखूंगी, क्या होगा उसका रंग?
क्या उगा सकेगी जंगल "हरा" लिखकर मेरी कविता?
क्या लौट आयेंगे ईश्वर, संत और विस्मृत स्मृतियाँ?
लौट आयेंगे प्रेमी प्रतीक्षारत प्रेमिकाओं के पास?
"मंगलयान" और "चंद्रयान" हैं इस युग की पुरस्कृत कवितायेँ!

हासिल हो स्वच्छ हवा और जल हमारी भावी पीढ़ी को
ऐसी कविताएँ अनाथ भटक रही हैं न जाने कब से !
मैं उन कविताओं को गोद लूंगी |
फिर मेरी कविताओं के आर्तनाद से तूफ़ान आ जाये,
आसमान टूट पड़े या बिजली गिर जाए,
उनका हाथ मैं कभी नहीं छोडूंगी |
मेरी कविताओं के संधर्ष से फिर उगेगा हरा रंग धरा पर
गायेगा मंगल गान सुगापंछी
तो धरती चीर कर निकल पड़ेगी फल्गु और सरस्वती!


मुझे माफ़ करना प्राण सखा,
नहीं लिख पाउंगी मैं कोई महान कविता !
मैं लिखूंगी रेत, और कविता पढ़कर करूंगी नदी का आह्वान
किसी आदिम पुरुष सा उस नदी किनारे तुम करना मेरा इंतजार |

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