कविता ऐसी है
कविता तो किशोरावस्था की स्मृति है। वह तो है तिर आया
मेरी माँ का म्लान चेहरा; नीम की डाल पर बैठा हुआ पीला पक्षी
पत्तों की आग से घिर रतजगा करते भाई-बहन
अब्बा का लौट आना, साइकिल की घंटी - राबिया राबिया -
मेरी माँ के नाम पर खुलता हुआ दक्षिण का भिड़काया हुआ कपाट!
कविता तो लौट जाना है पार कर घुटनों तक जल भरी नदी
कोहरे से ढँका पथ, भोर की अजान या पराली का दहन
पीठे के पेटवाले भाग में फुल आया तिल का सौरभ
मछली की गंध, आंगन में फैली हुई जाल और
बाँस के झुरमुटों में घास से ढँकी दादाजी की कब्र।
कविता तो है छियालीस में बड़ा होता कोई बीमार किशोर
स्कूल से भागकर की गई सभा, स्वाधीनता, जुलूस, झंडा
चारों तरफ चौंकाने वाले दंगों की आग में
निराश्रित होकर लौट आये अग्रज का कातर वर्णन।
कविता है कछार का पंछी, मिला हुआ बतख का अंडा, सुगंधित घास
म्लान मुख स्त्री की रस्सी तोड़ खोया हुआ बछड़ा
नीले लिफाफे की गोपनीय चिट्ठी में सुसज्जित अक्षर
कविता तो है खुले बालों वाली मकतब की बेटी आयशा अख्तर।
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