1. हो सके तो दुःख दो
हो सके तो दुःख दो, मुझे दुःख पाना अच्छा लगता है
दो दु:ख, दु:ख दो- मुझे दुःख पाना अच्छा लगता है।
तुम सुख लेकर रहो, सुखी रहो, दरवाज़ा खुला है।
आकाश के नीचे, घर में, सेमल के दुलार से स्तंभित
मैं पदप्रान्त से उस स्तंभ का निरीक्षण करता हूँ।
जिस तरह वृक्ष के नीचे खड़ा होता है पथिक, उस तरह
अकेले-अकेले देखता हूँ मैं इस सुन्दरता की संग्लिष्ट पताका को ।
अच्छा हो बुरा हो, मेघ आसमान में फैल जाता है
मुझे गले लगाती है हवा, अपनी बाहों में ले लेती है।
दिल उसे रखता है, मुँह कहता है - 'न रखना सुख में, प्रिय सखी' !
हो सके तो दुःख दो, मुझे दुःख पाना अच्छा लगता है
दो दु:ख, दु:ख दो- मुझे दुःख पाना अच्छा लगता है।
अच्छा लगता है मुझे फूलों में काँटा, अच्छा लगता है, भूल में मनस्ताप-
अच्छा लगता है मुझे सिर्फ़ तट पर बैठे रहना पत्थर की तरह
नदी में है बहुत जल, प्रेम, निर्मल जल -
डर लगता है।
२. एक बार तुम
एक बार तुम प्यार करने की कोशिश करना -
देखोगी, नदी के भीतर, मछलियों के ह्रदय से पत्थर झड़ रहे हैं
पत्थर, पत्थर, पत्थर और नदी-समुद्र का जल
नीला पत्थर लाल हो रहा है, लाल पत्थर नीला
एक बार तुम प्यार करने की कोशिश करना ।
ह्रदय में कुछ पत्थरों का होना अच्छा होता है - आवाज़ देने पर मिलती है प्रतिध्वनि
जब पूरा पैदल पथ ही हो फिसलन भरा, तब उन पत्थरों के
पाल एक के ऊपर एक बिछाकर
जैसे कविता का नग्न प्रयोग, जैसे लहर, जैसे कुमोरटुली की
सलमा-चमकी-जरी-जड़ी मूर्ति
बहुत दूर हेमन्त के धूसर नक्षत्र के दरवाजे तक को देखकर
लौट सकता हूँ मैं
ह्रदय में कुछ पत्थरों का होना अच्छा होता है
चिट्ठी-पत्र के बक्से जैसी तो कोई चीज़ नहीं होती- पत्थरों का अंतराल-
मुख में डाल आने पर ही काम हो जाता है-
कई बार घर बनाने का भी मन करता है।
मछलियों के ह्रदय के पत्थर क्रमशः हमारे ह्रदय में जगह बना रहे हैं
हमें सब कुछ ही चाहिए। हम घरबार बनाएंगे-सभ्यता का
एक स्थायी स्तम्भ खड़ा करेंगे
रुपहली मछलियों के पत्थर झड़ा झड़ाकर चले जाने पर
एक बार तुम प्यार करने की कोशिश करना ।
३. जिस तरह से जाता है, हर कोई जाता है
रास्ते में एक पेड़ के अपने दूसरे पेड़ के
बेहद करीब रहने के दृश्य को देखते-देखते देखते-देखते
मुझे याद आया, मैं हमेशा से ही हूँ बेहद अकेला ।
दोनों पेड़ों को क्या सभी ने देखा है ?
पेड़ को क्या सभी ने नहीं देखा है?
ऐसी बात सोचते-सोचते, हल्की बात सोचते-सोचते
मैं पोखर पर गया मुँह धोने के लिए
एक और चेहरा मुझे छूने के लिए - आते-आते बह गया
जिस तरह से जाता है, हर कोई जाता है, जिस प्रकार जाने की बात को
अकेला छोड़।
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१. যদি পারো দুঃখ দাও
যদি পারো দুঃখ দাও, আমি দুঃখ পেতে ভালোবাসি
দাও দুঃখ, দুঃখ দাও – আমি দুঃখ পেতে ভালোবাসি।
তুমি সুখ নিয়ে থাকো, সুখে থাকো, দরজা হাট-খোলা।
আকাশের নিচে, ঘরে , শিমূলের সোহাগে স্তম্ভিত
আমি পদপ্রান্ত থেকে সেই স্তম্ভ নিরীক্ষণ করি।
যেভাবে বৃক্ষের নিচে দাঁড়ায় পথিক, সেইভাবে
একা একা দেখি ঐ সুন্দরের সংশ্লিষ্ট পতাকা।
ভালো হোক মন্দ হোক যায় মেঘ আকাশে ছড়িয়ে
আমাকে জড়িয়ে ধরে হাওয়া তার বন্ধনে বাহুর।
বুকে রাখে, মুখে রাখে – ‘না রাখিও সুখে প্রিয়সখি!
যদি পারো দুঃখ দাও আমি দুঃখ পেতে ভালোবাসি
দাও দুঃখ, দুঃখ দাও – আমি দুঃখ পেতে ভালোবাসি।
ভালোবাসি ফুলে কাঁটা, ভালোবাসি, ভুলে মনস্তাপ –
ভালোবাসি শুধু কূলে বসে থাকা পাথরের মতো
নদীতে অনেক জল, ভালোবাসা, নম্রনীল জল –
ভয় করে।
२. একবার তুমি
একবার তুমি ভালোবাসতে চেষ্টা করো–
দেখবে, নদির ভিতরে, মাছের বুক থেকে পাথর ঝরে পড়ছে
পাথর পাথর পাথর আর নদী-সমুদ্রের জল
নীল পাথর লাল হচ্ছে, লাল পাথর নীল
একবার তুমি ভালোবাসতে চেষ্টা করো ।
বুকের ভেতর কিছু পাথর থাকা ভালো- ধ্বনি দিলে প্রতিধ্বনি পাওয়া যায়
সমস্ত পায়ে-হাঁটা পথই যখন পিচ্ছিল, তখন ওই পাথরের পাল একের পর এক বিছিয়ে
যেন কবিতার নগ্ন ব্যবহার , যেন ঢেউ, যেন কুমোরটুলির সালমা-চুমকি- জরি-মাখা প্রতিমা
বহুদূর হেমন্তের পাঁশুটে নক্ষত্রের দরোজা পর্যন্ত দেখে আসতে পারি ।
বুকের ভেতরে কিছু পাথর থাকা ভাল
চিঠি-পত্রের বাক্স বলতে তো কিছু নেই – পাথরের ফাঁক – ফোকরে রেখে এলেই কাজ হাসিল-
অনেক সময়তো ঘর গড়তেও মন চায় ।
মাছের বুকের পাথর ক্রমেই আমাদের বুকে এসে জায়গা করে নিচ্ছে
আমাদের সবই দরকার । আমরা ঘরবাড়ি গড়বো – সভ্যতার একটা স্থায়ী স্তম্ভ তুলে ধরবো
রূপোলী মাছ পাথর ঝরাতে ঝরাতে চলে গেলে
একবার তুমি ভলবাসতে চেষ্টা করো ।
३. যেভাবে যায়, সক্কলে যায়
পথের উপর একটি গাছের মধ্যে আপন অন্য গাছের
গভীর কাছে-থাকার দৃশ্য দেখতে-দেখতে দেখতে-দেখতে
আমার মনে পড়লো, আমি আগাগোড়াই ভীষণ একা।
.
গাছ দুটি কি সবার দেখা?
গাছটি কি নয় সবার দেখা?
.
এমন কথা ভাবতে-ভাবতে, আলতো কথা ভাবতে-ভাবতে
পুকুরে মুখ গেলাম ধুতে
আর একটি মুখ আমায় ছুঁতে — আসতে-আসতে ভাসতে গেলো
যেভাবে যায়, সক্কলে যায়, যেমনভাবে যাবার কথা
একলা রেখে।
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