Saturday, September 18, 2021

महादेव साहा की कविताएँ

 १. अंतराल 


मनुष्यों की भीड़ में मनुष्य छुपे रहते हैं 

पेड़ों की ओट में पेड़,

आकाश छुपता है छोटी नदी के मोड़ पर 

जल की गहराईयों में मछलियाँ;

पत्तों की ओट में छुपते हैं जंगली फूल 

फूलों की ओट में काँटा,

मेघों की ओट में चाँद की हलचल 

सागर में ज्वार-भाटा |

आँखों की ओट में स्वप्न छुपे रहते हैं 

तुम्हारी ओट में मैं,

दिन के वक्ष में रात्रि को रखते हैं 

इसप्रकार दिवसयामिनी |  


२. अकेले हो जाओ 


अकेले हो जाओ, निसंग पेड़ की तरह

ठीक दुखी असहाय कैदी की तरह

निर्जन नदी की तरह,

तुम और अधिक विच्छिन्न हो जाओ

स्वाधीन स्वतंत्र हो जाओ

हिस्सों में बँटे यूरोप के मानचित्र की तरह;

अकेले हो जाओ सभी संग-साथ से, उन्माद से

आकाश के आखिरी उदास पक्षी की तरह,

निर्जन निस्तब्ध मौन पहाड़ की तरह

अकेले हो जाओ |

इतनी दूर जाओ कि किसी की पुकार 

नहीं पहुँचे वहाँ 

या तुम्हारी पुकार कोई सुन न पाये कभी,

उस जनशून्य, निःशब्द द्वीप की तरह,

अपनी परछाई की तरह, पदचिन्हों की तरह,

शुन्यता की तरह अकेले हो जाओ |

अकेले हो जाओ इस दीर्घश्वास की तरह 

अकेले हो जाओ | 


३. एक करोड़ वर्ष हुए तुम्हें नहीं देखा


एक करोड़ वर्ष हुए तुम्हें नहीं देखा

एक बार तुम्हें देख सकूँगा 

यह आश्वासन मिले तो-

विद्यासागर की तरह मैं भी तैरकर पार करूँगा भरा दामोदर

कुछेक हजार बार पार करूँगा इंग्लिश चैनल;

तुम्हें बस एक बार देख सकूँगा इतना भर भरोसा मिले तो  

अनायास फाँद जाऊँगा इस कारा की प्राचीर,

दौड़ पडूँगा नागराज्य और पातालपुरी की ओर    

या बमवर्षक विमान उड़ते हों ऐसी 

आशंका वाले शहर में।

अगर मुझे पता हो कि मैं तुम्हें एक बार मिल सकूँगा, तो उतप्त मरुभूमि 

अनायस चलकर पार करूँगा,

कँटीले तारों को फाँद जाऊँगा सहज ही, लोकलाज झाड़ पोंछकर 

फेंक जाऊँगा किसी भी सभा में 

या पार्क और मेले में;

एकबार मिल सकूँगा सिर्फ़ यह आश्वासन मिले तो 

एक पृथ्वी की इतनी सी दूरी मैं आसानी से तय कर लूँगा।

तुम्हें देखा था कितने समय पूर्व, वह कभी, किसी बृहस्पतिवार को

और एक करोड़ वर्ष हुए तुम्हें नहीं देखा।



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१. অন্তরাল


মানুষের ভিড়ে মানুষ লুকিয়ে থাকে

গাছের আড়ালে গাছ,

আকাশ লুকায় ছোট্ট নদীর বাঁকে

জলের গভীরে মাছ;

পাতার আড়ালে লুকায় বনের ফুল

ফুলের আড়ালে কাঁটা,

মেঘের আড়ালে চাঁদের হুলস্তুল

সাগরে জোয়ার ভাটা।

চোখের আড়ালে স্বপ্ন লুকিয়ে থাকে

তোমার আড়ালে আমি,

দিনের বক্ষে রাত্রিকে ধরে রাখে

এভাবে দিবসযামী।


२. একা হয়ে যাও


একা হয়ে যাও, নিঃসঙ্গ বৃক্ষের মতো

ঠিক দুঃখমগ্ন অসহায় কয়েদীর মতো

নির্জন নদীর মতো,

তুমি আরো পৃথক বিচ্ছিন্ন হয়ে যাও

স্বাধীন স্বতন্ত্র হয়ে যাও

খণ্ড খণ্ড ইওরোপের মানচিত্রের মতো;

একা হয়ে যাও সব সঙ্গ থেকে, উন্মাদনা থেকে

আকাশের সর্বশেষ উদাস পাখির মতো,

নির্জন নিস্তব্ধ মৌন পাহাড়ের মতো

একা হয়ে যাও।

এতো দূরে যাও যাতে কারো ডাক

না পৌঁছে সেখানে

অথবা তোমার ডাক কেউ শুনতে না পায় কখনো,

সেই জনশূন্য নিঃশব্দ দ্বীপের মতো,

নিজের ছায়ার মতো, পদচিহ্নের মতো,

শূন্যতার মতো একা হয়ে যাও।

একা হয়ে যাও এই দীর্ঘশ্বাসের মতো

একা হয়ে যাও।

3. এক কোটি বছর তোমাকে দেখি না


এক কোটি বছর হয় তোমাকে দেখি না

একবার তোমাকে দেখতে পাবো

এই নিশ্চয়তাটুকু পেলে-

বিদ্যাসাগরের মতো আমিও সাঁতরে পার হবো ভরা দামোদর

কয়েক হাজার বার পাড়ি দেবো ইংলিশ চ্যানেল;

তোমাকে একটিবার দেখতে পাবো এটুকু ভরসা পেলে

অনায়াসে ডিঙাবো এই কারার প্রাচীর,

ছুটে যবো নাগরাজ্যে পাতালপুরীতে

কিংবা বোমারু বিমান ওড়া

শঙ্কিত শহরে।

যদি জানি একবার দেখা পাবো তাহলে উত্তপ্ত মরুভূমি

অনায়াসে হেঁটে পাড়ি দেবো,

কাঁটাতার ডিঙাবো সহজে, লোকলজ্জা ঝেড়ে মুছে

ফেলে যাবো যে কোনো সভায়

কিংবা পার্কে ও মেলায়;

একবার দেখা পাবো শুধু এই আশ্বাস পেলে

এক পৃথিবীর এটুকু দূরত্ব আমি অবলীলাক্রমে পাড়ি দেবো।

তোমাকে দেখেছি কবে, সেই কবে, কোন বৃহস্পতিবার

আর এক কোটি বছর হয় তোমাকে দেখি না।


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