Sunday, November 29, 2015

खराब समय

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ठीक जिस वक़्त ढूंढ रही थी मैं
खराब समय की संज्ञा
जम रहा था पसीना माथे पर समय के
मानवता की हाहाकार पर


मिनटों और सेकण्ड्स में बिखर रहा था जो
लड़ी से टूटे उजले मोती के दाने की भाँति
असहिष्णु हो उठा वह खराब समय अब
और चल पड़ा घृणा के रक्तिम पथ पर


कुहासा ओढ़े चला जा रहा है घृणित समय
बंद कर रहे हैं लोग घरों के खिड़की दरवाजे
छोड़ जाती हैं समस्त ऋतुएँ भी खराब समय को
नहीं गलता है खराब समय बारिश के पानी से


स्वाभाविक है जहाँ अन्धकार खराब समय के लिए
उसकी उम्मीदों में है शामिल अच्छे दिनों का प्रकाश
कि कभी देखे हैं उसने भी यहाँ मैदानों में हरा घास
कि उसकी स्मृतियों में अब भी दहकता है रंगीन पलाश


पलट दिया जाता है देखते ही देखते
कैलेंडर का अंतिम पन्ना भी
और रह जाता है समय काल की विस्मृति में
बनकर केवल एक इतिहास


खराब समय चलता है लड़खड़ाकर शराबी की तरह
उसकी शरीर से फूटता रहता है घृणा का मवाद
जिससे दूरी बनाकर आगे बढ़ जाते हैं अच्छे लोग
अच्छे लोग, जो ले आए है यह भीषण महामारी !!!


 ----सुलोचना  वर्मा--------

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