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अक्सर ही मैं पड़ जाती हूँ बीमार इस मौसम में
जहाँ बजने लगते हैं दाँत, सूज जाती हैं आँखे मेरी
और कड़कड़ाने लगती हैं शरीर की हड्डियां बेतरह
तो कैसे कहूं कि ठण्ड का मौसम मुझे पसंद आता है
जबकि हर पल रंग बदलते इस निर्मम संसार में
माँ के स्नेह के बाद ठण्ड ही एकमात्र अनुभूति है
जो कर जाती है प्रवेश इतने अपनेपन से
लहू के साथ मेरी कम कैल्शियम वाली हड्डियों में
हालांकि इस अजीब अपनेपन से अभिभूत कर जाता है
और जीवन में अंगीकरण का ज़रूरी मन्त्र सिखा जाता है
फिर भी है तो यह एकतरफा प्रेम ही, जो दर्द दे जाता है
तो कैसे कहूं कि ठण्ड का मौसम मुझे पसंद आता है!!!
----सुलोचना वर्मा------
अक्सर ही मैं पड़ जाती हूँ बीमार इस मौसम में
जहाँ बजने लगते हैं दाँत, सूज जाती हैं आँखे मेरी
और कड़कड़ाने लगती हैं शरीर की हड्डियां बेतरह
तो कैसे कहूं कि ठण्ड का मौसम मुझे पसंद आता है
जबकि हर पल रंग बदलते इस निर्मम संसार में
माँ के स्नेह के बाद ठण्ड ही एकमात्र अनुभूति है
जो कर जाती है प्रवेश इतने अपनेपन से
लहू के साथ मेरी कम कैल्शियम वाली हड्डियों में
हालांकि इस अजीब अपनेपन से अभिभूत कर जाता है
और जीवन में अंगीकरण का ज़रूरी मन्त्र सिखा जाता है
फिर भी है तो यह एकतरफा प्रेम ही, जो दर्द दे जाता है
तो कैसे कहूं कि ठण्ड का मौसम मुझे पसंद आता है!!!
----सुलोचना वर्मा------
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