Thursday, December 24, 2015

कमला कमलिनी

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माँ के साथ मैं भी ध्यानमग्न रहती| जेठ महीने के हर मंगलवार को हमारे घर देवी मंगलचंडी की पूजा होती थी| माँ बंद आँखों से माता मंगलचंडी का ध्यान करती  और मैं खुली आँखों से सामने रखे पाँच प्रकार के कटे हुए फलों से सजी थाली में रखे इकलौते आम की गुठली का| कुछ बेवकूफियाँ जन्मजात होती हैं| पूजा-आरती  के बाद जब प्रसाद वितरण की बारी आती तो अक्सर हम दोनों भाई -बहनों के बीच आम की गुठली को लेकर ठन जाती| माँ अक्सर कहती "दूसरा आम काट देती हूँ"| पर नहीं, हमें तो प्रसाद में चढ़ाई गयी आम की गुठली ही चाहिए थी| फिर एक तरकीब निकाली गयी| गुठली के लिए हम दोनों की बारी तय हुई| एक मंगलवार गुठली मुझे मिलती तो अगले मंगलवार भाई को| इस प्रकार एक बड़ी समस्या का समाधान मिला| 

इस समस्या के सुलझने से एक और बात हुई| अब मेरा ध्यान आम की गुठली से हटकर माता मंगलचंडी की कथा में रमने लगा| कथा क्या थी एक तिलिस्म सा था| कथा में एक सौदागर कुछ वर्षों तक परदेश में रहकर बाणिज्य करता है और फिर खूब सारा पैसा कमाकर कीमती चीज़ों के साथ जहाज से घर लौट रहा होता है| अभी वह किनारे पहुँचने ही वाला होता है कि उसका जहाज डूब जाता है| वह तैरकर किनारे पहुँचता है और अपने भाग्य का रोना रोता है| अचानक उसकी दृष्टि पड़ती है एक अलौकिक दृश्य पर| एक सुंदर स्त्री कमल के फूल पर आसन जमाए बैठी है| उसके एक हाथ में सफ़ेद हाथी का सर है और दुसरे हाथ से वह हाथी का सूंड चबा रही है| ऐसा अद्भुत दृश्य देखके उससे नहीं रहा गया और वह  उस स्त्री के समीप जाकर उसका परिचय पूछता है और यह भी पूछता है कि ऐसे निर्जन जगह पर वह अकेली क्या कर रही है| स्त्री का उत्तर होता है कि वह वन देवी कमला कमलिनी है| वह सौदागर को कहती है कि उसे पता है कि उसका जहाज डूब गया है और वह जहाज के डूबने का कारण जानती है| वह सौदागर को बताती है कि उसे उसका खोया हुआ धन वापस मिल सकता है| इतना सुनते ही सौदागर साष्टांग लेट जाता है और देवी कमलिनी से धन वापस पाने की तरकीब बताने को कहता है| देवी बताती है कि उसे अपने घर लौटना होगा और घर लौटकर उसकी पत्नी को जेठ महीने के हर मंगलवार देवी मंगलचंडी की पूजा करनी होगी| ऐसा करने के एक महीने बाद उसकी खोयी हुई सम्पति वापस मिल जायेगी| कथा के अंत तक ऐसा होता भी है| हमारे धर्म में पाप कोई भी करे, प्रायश्चित स्त्रियों को ही करना पड़ता है|

उन दिनों घर में टीवी नहीं होने के कारण हमारी कल्पनाशीलता अपने चरम पर थी| पूजा समाप्त होती और आम की गुठली चूसते हुए मेरी कल्पनाएँ कई आकार लेतीं| कभी सोचती जो देवी स्वयं समृद्ध है, जो चाहें तो छप्पन भोग का आनन्द ले सकती हैं, उन्हें आखिर हाथी को खाने की क्या ज़रूरत पड़ी? दुसरे ही क्षण मैं स्वयं को देवी मान मन ही मन कमल के फूलों पर सवार होती और हाथी को खाने का प्रयास करती| अजीब विडंबना थी कि हर बार सूंड मेरे गले में फँस जाता और मैं कल्पना से बाहर इस लोक में लौट आती| 

वह अप्रैल की एक दोपहर थी| उस रोज मेरी कलाईयों पर नारंगी चूड़ियाँ देख नायला एकदम से बिफर गयी|  उसने कहा "ये क्या हिन्दुनी जैसी चूड़ियाँ डाल रखी हैं हाथों में...बदल लो"| दांत कटी दोस्ती थी नायला बानो से| हमारे घर के चापाकल के पानी बिना उसकी प्यास नहीं मिटती और उसके घर के बने आम के अँचार मेरे टिफिन के जायके को दुगूना कर देते| 

"हिन्दुनी"- पहली बार ऐसा कोई शब्द सुना था| उस दिन से पहले तक कभी दुपट्टा माथे पर रखकर मुग़ल ए आज़म की मधुबाला बनते हुए आईने में देखती, तो आस-पड़ोस के लोग कहते "मियाइन लग रही हो"| कभी हरे रंग का फ्रॉक पहन लिया तो भी यही कहकर चिढ़ाते थे| उस रोज़ मैं अपने भीतर एक अजीब सी ख़ुशी महसूस कर रही थी| घर लौटते ही माँ को बताया "ये जो हम हर बात में "मियाँ" और "मियाइन" कहकर मुसलमानों को बुरा दिखाने की कोशिश करते हैं न, उनके पास भी हमारे लिए वैसा ही शब्द है-"हिन्दुनी"| क्या हम बिना एक-दुसरे पर टीका-टिप्पणी किये प्रेम से नहीं रह सकते? रंगों का धर्म किसने तय किया कि हरा  मुसलमान हो गया और नारंगी हिन्दू?" 

प्रेम जल की तरह पारदर्शी होता है| उस समय मैं उसकी सबसे प्रिय सहेली थी| हमें तो हमारी दोस्ती से मतलब था| मजहब समझ से बाहर की चीज़ थी| मुझे बुरा नहीं लगा| उसकी ज़ुबान पर भले ही मजहबी शब्द थे, पर उसके सरोकार का तो बस प्रेम से बावस्ता था| सो मैंने प्रेम ही सुना| उस घटना का हमारी दोस्ती पर कोई असर नहीं पड़ा|

उन दिनों हमारे गाँव में घरों की दीवारें छोटी हुआ करती थीं| जिनके घरों का छत खपरैल न होकर पक्का था, वह तो बस छत पर चढ़कर आस-पड़ोस के  चार-पांच घरों का हाल-समाचार पूछ लिया करते थे| किसके घर में क्या खाना पका है, पड़ोसियों को पता होता था| खाना बनाने के मामले में भी हर घर की अपनी स्पेशलिटी थी| किसी के घर की कढ़ी का सुनाम था तो किसी के घर में बने छोले का| कई मौकों पर मिल-बाँटकर खाते थे| जब नायला  का परिवार हमारे घर आता, तो हमारे आँगन में रखी चारपाई पर बैठक जमती| ऐसे में जब हमारे घरवाले नायला  के घर जाते, तो हमारे बैठने का इंतजाम आँगन में किया जाता| बैठने के लिए प्लास्टिक की कुर्सियाँ होती और हमारा चाय नाश्ता बाहर से मँगाया जाता जिसे हिन्दू दूकानदार ही लाता और परोस जाता| नायला  की दादी एक बेहद ज़हीन और पाक ख्याल स्त्री थीं| अक्सर कहतीं "हम तो आपकी ठीक से खातिर ही नहीं कर पाते| आपलोगों की भावनाओं का भी ख्याल रखना पड़ता है| हमारे अल्लाह ताला ने  सबके लिए अच्छी सोच रखने को कहा है"|

मेरी माँ कहती "नायला  की शादी पर एक दर्ज़न मेवा दरवेश लड्डू खाऊँगी| तब करियेगा हमारी खातिर"| फिर सभी हँस पड़ते| 

सातवीं कक्षा के बाद जब हम हाई स्कूल गए, तो वहाँ नायला  बानो नज़र नहीं आयी|  जब कुछ दिनों तक वह नहीं दिखी, तो एकदिन मैं उसके घर चली गयी| उसकी दादी ने बताया "बेटा, हमारे कौम में लडकियाँ बड़ी होने के बाद दिन के उजाले में निकले, तो लोग तरह-तरह की बातें करेंगे| बस इसीलिए यह घर पर रहकर ही पढ़ाई करेगी|"|

यह सुनकर मैं उदास तो बहुत हुई थी पर कहीं सुकून था कि उसकी पढ़ाई बंद नहीं हुई| स्त्रियों के खिलाफ हर धर्म का अपने ही तरीके का षड्यंत्र है| फिर तीन-चार महीनों और बाद में छह-सात महीनों पर शाम के बाद नायला  अपनी दादी, जिन्हें वह अम्मी ही कहकर बुलाती, के साथ आती| शामें खूबसूरत हो जाया करतीं| 

6 दिसम्बर 1992 का दिन भी रविवार का आलस लिए हुए था| हम भाई-बहन को स्कूल नहीं जाना होता था, सो माँ दिन में ज्यादा देर तक पूजा कर सकती थी| घर के तमाम काम निपटाकर स्नान करने के बाद अभी माँ ताम्बे के लोटे में जल और हाथ में अड़हूल लिए मन्त्र बुदबुदाते हुए सूर्य देवता को जल चढ़ा रही थी| 

"जपाकुसुमसंकाशं काश्यपेयं महाद्युतिम् ........."

अचानक बाहर से आती शोर में माँ की आवाज दब गयी| चारों ओर ख़ुशी की लहर थी| सिर पर भगवा फेटा बाँधे जश्न मनाते लोग सड़क पर उतर आये थे| अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराई जा चुकी थी। सभी टीवी की ओर दौड़े| माँ के हाथों के अड़हूल से भी अधिक रक्तिम था टीवी स्क्रीन| "हिन्दुनी"-यह शब्द जेहन पर अतिक्रमण कर रहा था| 

टीवी से नज़र ही नहीं हट रही थी| मृतकों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा था| मारे जानेवाले लोग दोनों धर्मों के थे| हैरानी इस बात की थी कि इस दंगे को प्रायोजित करनेवाले किसी भी नेता को खरोंच तक नहीं आई| 

यह धर्म भी सफ़ेद हाथी ही है| कमबख्त ये सफ़ेद हाथी का सूंड आम लोगों के ही गले में क्यूँ फँसता है? वह भी तब जब वह इसे मन ही मन खा रहे होते हैं| किसी ने देखा है असल जिंदगी में सफ़ेद हाथी को? वैसे देखा तो अल्लाह को भी नहीं है| श्रीराम को भी ग्रंथो से ही जानते हैं| फिर भी आये दिन दोनों कौमों के लोग राम और रहीम के नाम पर एक-दुसरे के खिलाफ़ खड़े नज़र आते हैं|

हम मनुष्यों को जिंदा रहने के लिए हौआ चाहिए| हमारे आसपास छोटी-छोटी खूबसूरत चीज़ें हैं, सुन्दर रिश्ते हैं और प्रेमपूर्वक जीने का साधन है| पर हमें वो चीज़ें आकर्षित करती हैं जिन्हें हमने देखा ही नहीं और जिनसे हमारा नैतिक रिश्ता जन्म लेते ही तय कर दिया गया| वो रिश्ते जिन्हें हमने अपनी पसंद से बनाये थे, पीछे छूटते चले गये| वक्त के मरहम से दंगों के ये घाव भले ही भर जाते होंगे  लेकिन हिंदू और मुसलिम समुदायों के बीच संदेह और अविश्वास की जो गहरी खाई पैदा हुई है उसे भरने में न जाने कितना वक्त लगेगा| 

कुछ समय बाद हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के लड़कों की आपसी रंजिश में हुई लड़ाई में नायला के चचा की हत्या कर दी गयी| हत्यारे का अंदाजा लगभग सभी को था पर बिल्ली के गले में घंटी बांधता कौन!!!

1992 के बाद मैं नायला  से कभी नहीं मिली| न ही उसके परिवार का हमारे घर आना हुआ| ऐसा नहीं था कि हमारे परिवारों के बीच दंगे को लेकर कोई मनमुटाव रहा हो, पर आसपास के माहौल का हमारी निजी जिंदगी पर असर तो पड़ता ही है| मैट्रिक पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए गाँव छोड़ शहर आ गयी थी| इस बीच नायला  के घर से कभी कोई हमारे घर नहीं आया| १९९५ में दुर्गा पूजा के मौके पर जब घर गयी, तो माँ ने बताया नायला  की शादी हो चुकी थी| अभी मैं पूछना ही चाह रही थी कि माँ ने शादी में शिरकत की या नहीं, कि माँ बताने लगी दो महीने पहले एक शाम एक स्त्री बड़ी सी थाली में बायना लेकर आई| माँ के पूछे जाने पर कि किसके घर से आया है उसने बिना कुछ कहे उस कशीदेकारीवाले कपड़े को हटाया | थाली में एक दर्ज़न मेवा दरवेश लड्डू थे|

मुझे देवी कमला कमलिनी याद आई| इसबार उनकी शक्ल नायला की दादी से मिल रही थी| आखिरकार वह कोई देवी ही हो सकती थी जो पाखण्ड के सफ़ेद हाथी के सूंड को चबाकर निगल गयीं| अतीत के गभीर जल में सुन्दर स्मृतियों का हंस देर तलक विचरता रहा|

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