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तुम्हारे होने से - सुनती
हूँ प्रेम की इतिकथा अन्धकार के नक्षत्र सभा में
तुम्हारे होने से - रात
महकती है बन पारिजात, सुबह जैसे रेशमी कपास
तुम्हारे होने से -
तन्द्रा से चूर आँखें काटती हैं निंद्राहीन रात प्रेम के ज्वार में
तुम्हारे होने से - तनिक
देर से डूबता है भोर का तारा शुक्र आसमान में
तुम्हारे होने से -
स्निग्ध सोंधे सुगंध से भर जाती है आसपास की चौहद्दी
तुम्हारे होने से - करता
है विनिमय मांस का आदिम अजगर - सा प्रेम
तुम्हारे होने से - प्रेम
कहाँ रह पाता है केवल प्रेम सप्ताह के किसी भी एक दिन
और जब नहीं हो तुम
तुम नहीं हो - तो भावनाएँ
करती हैं अजश्र विलाप यातनाओं के धिक्कार सभा में
तुम नहीं हो - तो जलता है
जुगनू लग रात्रि के हृदय, जैसे मैं तुम्हारी
स्मृतियों से
तुम नहीं हो - तो स्थिर हुआ
है मेरा लावण्य मरी हुई मछली की आँखों के समान
तुम नहीं हो - तो मेरा
जीवन बोध भटक रहा है किसी विवेकहीन अनजाने देश में
तुम नहीं हो - तो नहीं
झरता मौलसिरी अश्रुपात पर, मुंह से अब
लावा नहीं फूटता
तुम नहीं हो - तो आछन्न
रखती है एक प्रकार की विध्वंशकारी नीरवता गहरे तक
तुम नहीं हो - तो तुम ही
हो मौजूद पहले से भी ज्यादा जीवन में बन प्रबल माया
यह विडम्बना ही तो है कि
मौन का अनुवाद करना नहीं सीख पायी मैं अब तक
और मुझे बेतरह भयाक्रांत
करती रहती है प्रतिपल संकेतों की भाषा गणित की तरह
किसी गल्प, छंदबद्ध कविता या भाषापाठ के किसी नवीन शब्द में बता दो तुम
जो छेड़ जाते हो मन की वीणा के सातों सुर सप्ताह के सातों दिन हो कि नहीं हो?
जो छेड़ जाते हो मन की वीणा के सातों सुर सप्ताह के सातों दिन हो कि नहीं हो?
---सुलोचना वर्मा -----
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