Sunday, September 4, 2016

कोलकाता के बाबूघाट पर

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बिन माझी की एक नाव 
बँधी थी कोलकाता के बाबूघाट पर 
जो कर रही थी शायद किसी की प्रतीक्षा
और ऊंघ रही थी क्लांति से होकर चूर

वह वैशाख की अपराह्न बेला थी जब मैं पहुंची घाट पर
सूरज ने तान रखा था पीला कतान सा गंगा के ऊपर 
ऐसे में एक उमस ही थी जो फैली थी दूर- दूर तक
घाट पर गंगा के जल के अतिरिक्त  
समय की बहुतायत कर रही थी इंगित मुझे और नाव को
परस्पर एक-दुसरे के एकाकीपन की ओर
मैं भीड़ के बीच खड़ी थी अकेली ठीक वैसे 
जैसे पड़ी थी अकेली बिन माझी की नाव 
कोलकाता के बाबूघाट पर 

हवा में तैरते हुए कुछ शब्द कर रहे थे अतिक्रमण मानस पर 
रासमणि, गंगा स्नान, ढीमर जाति, देवी मन्त्र, शूद्र वर्ण और भी कई ...
रह रहकर ध्यान भंग कर रहीं थीं गंगा की शांत लहरें 
जो टकरा रहीं थी पास आती हुई हमारी डिंघी के पाल से उसी तरह 
जैसे मैं टकरा गयी थी अचानक बिसरि हुई स्मृतियों से उस क्षण
कोलकाता के बाबूघाट पर 

घिर आयी अजीब सी उदासी उस नौका से दूर डिंघी से दक्षिण की तरफ बढ़ते हुए 
जैसे पड़ी हो कोई हिचकी, कोई हुक या कोई चीख नाव के ठीक नीचे रेत पर  
जिसे नहीं कर पायी हो शांत बरसों पहले बुझी चिता की आग 
लिपटी है एक उदासी नौका पर रखे पाल से जो चीख-चीख कर सुनाना चाह रही हो कहानी 
सदियों पहले घाट पर हुए दमन और अत्याचार की
जो पाना तो चाहती है मोक्ष अपने अतीत से, पर वर्तमान के जल में घुल नहीं पा रही 
कि शायद आये कोई अपना कभी घाट पर और तर्पण कर जाए  
ऊब-डूब कर रही थी एक गहरी उदासी मेरे अंदर भी 
उनके लिए जो एक जमाने जीवित थे और इन घाटों पर मरे
उनके लिए भी जो नहीं रहेंगे एक दिन इन घाटों और मंदिरों को देखने के लिए बचे 

अजीब था पर मैं कर रही थी यात्रा दो नावों पर वस्तुतः एक ही कालखंड में 
मैं जी रही थी कोई पौराणिक क्षण अपने भीतर उसी तरह
भोगता है मिथक काल का मानुष इतिहास जैसे
बढ़ रही थी मेरी डिंघी अपने गंतव्य की ओर 
जबकि मेरा एक पाँव अब भी था उस नाव पर 
जो बँधी थी कोलकाता के बाबूघाट पर 

गंगा की लहरों को पाल से चोटिल कर रही थी कई अन्य नौकाएं 
जो चल रहीं थीं हमारी डिंघी के समानांतर 
वो सभी नौकाएं ढों रहीं थीं उदासियाँ किस्म-किस्म की 
मानो उदासियों का मेला लगा हो गंगा के घाट पर 
उस प्रहर भी सबसे तेज चल रही थी वह नाव 
जिस पर अपनी स्मृतियों में सवार थी मैं अब भी 
और जो बँधी थी कोलकाता के बाबूघाट पर 

उतर गयी डिंघी से मैं कालीघाट पर ठीक संझा-बाती के समय 
पर फिर भी रही सवार बाबूघाट के उस नाव पर जैसे 
मैं थी उस काठ की नौका पर ठोका गया कोई कील 
जो चीख रहा है मोक्ष, जिसे सुन पाने के लिए चाहिए गंभीरता नदी की 
बाबूघाट से दक्षिणायन होती गंगा लगती है गले सागर के कुछ देर चलकर 
अभी मैं चली ही थी लेकर अपने भीतर मृत्यु का बोध 
जो हुआ मुझे घाट और मंदिर के बीच 
कि गंगा की धारा ऐसे लहराई जैसे कोई सगा लहरा रहा हो हाथ विदाई के क्षण में 
मुझे हुआ बोध जीवन का, 
जो है वर्तमान, गतिशील और इतिहास से परे
मैं बैठ गयी कुछ देर मूंदे आँख घाट किनारे 
पार्श्व में गा रहा है बाऊल मीठा धीरे-धीरे 
"कोन घाटे लागाईबा तोमार नाव, सुजॉन माझी रे"

----सुलोचना वर्मा -----

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