Saturday, December 16, 2017

दंगा-ए-शहर मुश्किल-ए-नौकरी

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वह सन २०१७ के अगस्त महीने की पच्चीस तारीख थी | दिन था शुक्रवार | टीवी में समाचार देखते हुए सुबह नाश्ता किया| पिछले चंद दिनों से पंचकुला में बाबा राम रहीम के समर्थक और पुलिस के बीच झड़प की खबरें आ रहीं थीं| बलात्कार के आरोप की पुष्टि के बाद बाबा राम रहीम की गिरफ़्तारी और डेरा सच्चा सौदा के ठिकानों पर सरकारी छापे के बाद झड़प ने दंगे का रूप ले लिया था | समाचार खत्म होने से पहले नाश्ता ख़त्म हुआ और दौड़ते-भागते मैं दफ्तर पहुँची|

दफ्तर से मैं और मेरी टीम की एक सॉफ्टवेर इंजिनियर कैंसर से जुड़े एक प्रोजेक्ट का डेमो देने एम्स गए | हमारे एम्स पहुँचने से पहले बारिश शुरू हो चुकी थी| जिन चिकित्सकों की टीम से मिलने हम गए थे, वह किसी दूसरी बिल्डिंग में किसी कार्यक्रम के स्पीकर थे| बारिश के चलते उन्हें उस भवन से कैंसर भवन तक आने में वक्त लगा| मीटिंग देर से शुरू हुई| एक डॉक्टर साहब मिले जो अमेरिका में ओवेरियन ऑन्कोलॉजी पर शोध कर रहे थे। प्रधानमंत्री मोदी जी का दमदार भाषण सुना, देशभक्ति जागी और गाड़ी, बंगला सब छोड़ भारत आ गए। एम्स में कैंसर के नए उपचार शुरू करने जा रहे थे। बहुत मायूस हो कह रहे थे इस देश की जनता में साइंटिफिक सोच डेवलप करने में न जाने कितने वर्ष लग जायेंगे। किडनी के संक्रमण से अधमरे मरीज को साथ लाने वाला रिश्तेदार ओपीडी में बैठा थूक देता है। वो कहते हैं वो अपना तीस प्रतिशत समय लोगों को साफ सफाई के बारे में जागरूक करने में देते हैं। डेरा सच्चा वाले प्रकरण से आहत होकर बोले "कहाँ इस देश को बाबा चाहिए और कहाँ मैं मोटी कमाई और लंबी गाड़ी छोड़ सरकारी अम्बसडर में घूम रहा हूँ। बताओ ये लोग किसी फर्जी बाबा के लिए मर रहे हैं और यहाँ अस्पताल में न जाने कितने मरीज इसलिए मर रहे हैं कि उन्हें ऑर्गन डोनर नहीं मिल रहा!! मैं तो बेवकूफ़ बन गया"

मैं बस इतना ही कह पायी "डॉक्टर साहब, इस देश को ऐसे बेवकूफों की बड़ी जरुरत है"।

सवाल - जवाब का सिलसिला जब थमा,  शाम के साढ़े पाँच बज रहे थे| एक तो कैंसर वार्ड के मरीजों को देख तकलीफ से मन भर गया था| लगभग पाँच साल की एक छोटी बच्ची, जिसे उसके पिता पकड़े हुए थे और माँ साफ़ कर रही थी, वह लगभग कंकाल बन चुकी थी | उसे देखना बेहद भयावह था| उसके माता-पिता को उसे प्यार करते हुए देख न जाने कितनी आँखों का बांध टूटा होगा | जिधर नजर जाए, उधर ही कष्ट| मरीज अधिक, अस्पताल में बिस्तर कम| उन दृश्यों के साथ उस माहौल में रहना भी कम कष्टकर न था|

बारिश थमने का नाम नहीं ले रही थी| हमने जल्दी से ओला कैब बुक किया| दो मिनट बाद फोन आया कि वह नहीं आ सकता और हम बुकिंग कैंसिल कर दें| हमने मना किया पर मज़बूरी में हमें ही बुकिंग कैंसिल करना पड़ा| बिना कैंसिल किए, दूसरा बुक नहीं कर पा रहे थे| पहले लगा बारिश की वज़ह से कैब वाले दिल्ली से उत्तर प्रदेश की ओर नहीं जाना चाह रहे, पर अजीब लगा जब एक के बाद एक पाँच कैब वालों ने मना कर दिया| दफ्तर में फोन लगाया तो उन्होंने कहा "आपलोग न जाने कैसे आएँगे| राम-रहीम के अंधभक्त गदर मचाते हुए दिल्ली और गाज़ियाबाद आ पहुँचे हैं| दफ्तर में सभी को छुट्टी दे दी गयी है"| सुनते ही घबराकर एक पत्रकार को फोन किया, फोन बजता रह गया| फिर फोन आने लगे तो पता चला कि टी सी एस समेत अन्य दफ्तरों ने भी कर्मचारियों को जल्दी छुट्टी दे दी| मेरे पास खड़ी सॉफ्टवेर इंजिनियर के मोबाईल पर बारबार उसकी छोटी बहन का फोन आ रहा था जो अपने दफ्तर का हाल बता रही थी| उसने पहले बताया कि हिंसा खत्म होने का समाचार आने तक उसके दफ्तर से किसी भी कर्मचारी के बाहर जाने पर रोक लगा है| थोड़ी देर बाद फिर से फोन कर उसने बताया कि सरकारी आदेश पाकर उसके दफ्तर को खाली करवाया जा रहा था| दोनों बहनें एक-दूसरे के लिए परेशान थीं|

मायूस सॉफ्टवेर इंजिनियर रह रहकर मुझसे पूछ रही थी "अब क्या होगा मैम" और मैं उसे दिलासा देते हुए कह रही थी "कुछ न कुछ उपाय हो जाएगा" जबकि मैं भी मन ही मन अपने आप से ठीक यही सवाल पूछ रही थी|

एक वाकया याद आया| एकबार मैं और मेरी बेटी, खुशी रूटीन ब्लड टेस्ट के लिए अपोलो गए| साथ में मेरे माँ-बाबा भी थे| पहले उनका रक्त लिया गया, फिर मेरा और फिर खुशी की बारी आयी| खुशी जोर-जोर से रोने लगी| मैं उसे चुप कराने लगी, तो उसने कहा "मुझे दर्द हो रहा है"| मैंने उससे कहा कि सुईं के चुभने पर दर्द तो सभी को होता है; पर और कोई नहीं रो रहा| इसपर उसने पूछा " अगर दर्द हुआ तो क्यूँ नहीं रो रहे"!!! मैं निःशब्द हो गयी| मैंने उससे कहा "हम बड़े होकर बच्चों जैसा सहज नहीं रह पाते| हमारे अंदर कुछ और होता है और बाहर कुछ और| अभिनय की इतनी जबरदस्त आदत पड़ चुकी होती है कि जहाँ उसकी दरकार नहीं, वहाँ भी वही करते हैं| तुम इसबार सही हो, रो लो| "| मेरी छोटी सी बच्ची से एक बड़ा ज्ञान मिला| इस घटना के ठीक नौ महीने बाद अपोलो के लैब में रक्त देते हुए किसी को यह कहानी सुनायी थी| उसने उस दिन अपनी भावनाओं को बहने दिया था| हम कई बार आम कहना चाहते हैं, और अभिमान लिए सामनेवाले से ईमली बतियाकर रह जाते हैं| उस दिन फिर लगा सहज होना बेहद जटिल होता है| सचमुच रोने का मन कर रहा था|

हमने फिर एक कैब बुक किया| इसबार कैब वाले के पूछे जाने पर मैंने पता मयूर विहार के पास का बताया| पहले मना कर गया, पर जब मैंने बताया, मेन रोड में ही उतर जाना है, वह आने को राजी हुआ| ओटिपी डालते ही नॉएडा का पता देख बिफर गया पर मैं उसे यह समझाने में कामयाब रही कि दिल्ली के पास है|

देर रात अक्षरधाम फ्लाईओवर के नीचे जाम में फंसी थी| बाहर घुप्प अंधेरा पसरा हुआ था | वहाँ से नॉएडा - ग्रेटर नॉएडा जाने वाली कतारबद्ध गाड़ियों के टेल-लैंप की लाल रौशनी ऐसी दिख रही थी मानो कई खतरे एक साथ किसी शहर में प्रवेश कर रहे हों | सड़क के दूसरी ओर तेज गति से दौड़ती गाड़ियों के  हेडलैंप से आती दुधिया रौशनी को देखकर लग रहा था कि जैसे वे एक छोर के अंधेरे से भाग दुसरे छोर के अंधेरे की ओर जा रहीं थीं | मैं सोच रही थी कि उजालों के विनिमय में अक्सर अंधेरा हाथ आता है| अचानक गाड़ी में हरकत हुई और गाड़ी आगे बढ़ी| सामने बुद्ध धर्म चक्र मुद्रा में आसीन थे | हम गौतम बुद्ध नगर में प्रवेश कर चुके थे| दफ्तर पहुँचने से पहले वहाँ की ह्यूमन रिसोर्स एग्जीक्यूटिव का फोन आ चुका था और उसने कहा कि हमें दफ्तर पहुँचते ही घर के लिए निकल जाना है| ठीक वैसा ही किया|

बारिश के बाद दक्षिणी दिल्ली की भीड़भाड़ वाली सड़कों को पार कर दफ्तर पहुँचते देर हो गयी| दफ्तर खाली हो चूका था| पार्किंग से कार निकाली और घर की दिशा में चल पड़ी| ज़ेहन में बस एक ही बात थी| किसी तरह जल्द से जल्द घर पहुँचना था | एम्स से मेरे साथ ही दफ्तर पहुँची सॉफ्टवेर इंजिनियर को मैंने उसके घर तक छोड़ने की पेशकश की; पर उसने यह कहते हुए मना कर दिया कि कार की तुलना रिक्शा से जल्द पहुँच जाएगीं|  नॉएडा सेक्टर दो से एक्सप्रेसवे आने में जहाँ ४० मिनट लग जाते हैं, उस रोज़ १० मिनट में पहुँच गयी| रास्ते में ऍफ़ एम् पर अचानक सुना कि गाज़ियाबाद और नॉएडा के सेक्टर 144 में हालात ठीक नहीं| महामाया फ्लाईओवर के पास ऐसा जाम लगा था कि बहुत देर तक कुछ बुरा होने का अंदेशा लिए कार में बैठी रही| जानकारी लेने के लिए एक दोस्त को फोन लगाया| उसे जानकारी तो नहीं थी, पर वह चिंतित हो गया| मेरे घर पहुँचने तक लगातर फोन करता रहा| घर पहुँचते ही पता चला कि मैं जल्दबाजी में फोन का चार्जर दफ्तर भूल आई और यह कि नॉएडा में धारा 144 लागू हो गया !!!

घर आते ही टीवी चलाया और समाचार देखने के लिए एक चैनल पर आनेवाले कार्यक्रम की प्रतीक्षा करने लगी। विज्ञापन आ रहे थे; पहले जोशीना, फिर हेमपुष्पा, फिर रसायन वटी, उसके बाद पतंजलि एलो वेरा.....मैं सोच रही थी जब देश इतना बीमार है, तो खबरें अच्छी कैसे हो सकती थीं| भक्ति को गुंडागर्दी में तब्दील होते देखा| पता चला आनंद विहार में रेल की दो बोगियों को आग के हवाले किया जा चुका था| अलग-अलग जगहों पर बसों में भी तोड़-फोड़ की घटना हुई| बताया जा रहा था कि हिंसा में नुकसान की भरपाई डेरा सच्चा सौदे की संपत्ति जब्त करके की जाएगी| आगे क्या हुआ नहीं पता | सबसे ज्यादा हैरान तो मैं उन स्त्रियों को देखकर थी जो गोद में बच्चों को लिए एक बलात्कार के आरोपी को बचाने सड़क पर उतर आईं थीं| कई लोगों के मारे जाने और कुछ के घायल होने की ख़बरें थीं |

सर में तेज दर्द हो चला था| जिस दहशत भरे माहौल से होकर घर पहुँची थी और ठीक तभी टीवी पर जैसे दृश्य दिखाए जा रहे थे, उसके बाद मन और मस्तिष्क, दोनों  को आराम की सख़्त जरुरत थी| शुक्र था कि वह शुक्रवार था और अगले दो दिन छुट्टियाँ थीं| टीवी बंद किया और बेटी से बातें करने लगी| घर पर होना बेहद सुकून दे रहा था| यह और बात है कि एम्स के कैंसरग्रस्त मरीजों और उनके परिजन के सहमे हुए चेहरे आज भी मेरा पीछा करते हैं| अगले दो दिन आराम किया|

अगले सप्ताह, सोमवार तक स्थिति नियंत्रण में थी, हम उठे, तैयार हुए और फिर दफ्तर चल दिए| 

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