Monday, January 1, 2018

सपने में नींद

----------------------------------------------------------------------------------------


महानगरों में समय से दफ़्तर पहुँच जाना भी बड़ी बात है| दफ़्तर में समय से पहुँचने में समय प्रबंधन तब तक ही काम आता है जब तक आप घर से निकल नहीं जाते | अमूमन इस समय प्रबंधन में नींद की कटौती शामिल होती है| एकबार घर से निकल गए तो फिर मौसम, धार्मिक जुलूस, धरना प्रदर्शन, खराब ट्रैफिक सिग्नल जैसी कई चीजें समय प्रबंधन के आड़े आ जाती हैं| ऐसे ही किसी दिन घर से दफ़्तर को निकली और लगभग बारह किलोमीटर चलने के बाद जाम में फँसकर याद आया कि उस रोज शिवरात्रि का उत्सव था | साढ़े तीन घन्टे जाम में फँसकर और जगह -जगह पर कानफाडू बोलबम डीजे सुनने के बाद सोचती रही कि क्या भोले के भक्त इतने भोले होते हैं कि जिसके गले में पहले से ही ज़हर है, उसके कानों में भी ज़हर घोलकर पुण्य कमाने का भ्रम पालते हैं!!


२००८ में शिवरात्रि के समय मदुरै में थी| कहा जाता है वहाँ के मीनाक्षी मंदिर में हुई थी शिव और पार्वती की शादी| आज भी लोग शिवरात्रि के दिन शिव जी की बारात लेकर जाते हैं और वैगई नदी किनारे इस पर्व को गाजे -बाजे के साथ मनाते हैं| एक तो उनके द्वारा बजाए जानेवाले वाद्ययंत्र यंत्र पारंपरिक थे और सबसे सुन्दर बात यह थी कि यह बारात रास्ते के किनारे शांतिपूर्ण तरीके से चल रही थी; बिना किसी को असुविधा पहुँचाये| धर्म के नाम पर पागलपन नहीं बल्कि एकप्रकार की उत्सवधर्मिता दिखी| शिव की सहिष्णुता को आत्मसात करते लोग दिखे थे|


गाज़ियाबाद के दूधेश्वरनाथ महादेव मठ मंदिर में पिछले कुछ सालों से औसतन चार से पाँच लाख कांवड़ियों के जलाभिषेक करने की खबर आती रही है। भोले के इन भोलों को सम्भालने के लिए तीन हजार स्वयंसेवक भी परिश्रम करते आ रहें हैं| शिव ठहरे परम ज्ञानी | ऐसे में शिव जी न तो एक्सप्रेसवे के कंक्रीट में फंसने आते हैं और न ही एन एच २४ के नरक में धंसने | नौकरीपेशा लोगों को अपना ख्याल खुद ही रखना पड़ता है|


देर से दफ़्तर पहुँचने पर आधे दिन की तनख्वाह कटने और देर तक काम करने के अतिरिक्त जो खामियाजा भुगतना पड़ता है, उनमें कार पार्किंग की जगह का उपलब्ध न होना प्रमुख है| हम एक ऐसे समय के गवाह बने जब गौ भक्ति अपने चरम पर थी| इस भक्ति में परवाह कतई नहीं थी | गौ भक्तों ने अपनी तथाकथित माताओं को प्लास्टिक और कूड़ा खाने के लिए सड़कों पर छोड़ दिया और पिता सांड की कभी खबर तक नहीं ली। सरकार के एजेंडे में भी ऐसा कुछ शामिल नहीं किया गया जिससे इन जानवरों को सड़कों से हटाया जा सके। तमाम परेशानियाँ आम जनता के हिस्से आती है। नॉएडा सेक्टर 2 में कई जगह एक साथ दस-बारह की झुण्ड में गाय और सांड दिखेंगे। उस रोज दफ्तर के बाहर पार्किंग में दो सांड आपस में लड़ते रहे और उनकी धींगामुश्ती में एक सांड का सिंग मेरी कार के टेल लैंप में घुस गया और टेल लैंप उसकी सिंग के साथ ही बाहर आया। फिर उनकी धक्का मुक्की में कार का एक हिस्सा भी क्षतिग्रस्त हो गया | दिल दुखी था और दिमाग सोच रहा था कि पहले तो कार एक्सेसरीज पर सर्विस टैक्स या वैट भी नहीं लगता था, अब तो जीएसटी नामक संकट इन पर भी लागू हो चुका था। पर उस समय माहौल को देखते हुए यह नहीं कह सकती थी कि मंहगाई बढ़ी है, तो बस इतना ही कह पायी थी कि चीजों के दाम बढे हैं। अगले कई घंटे इसी गम में बीत गए और घर लौटने की बारी आई|


कक्षा आठ में अल्फ्रेड जॉर्ज गार्डिनर का लिखा आलेख "ओन सेयिंग प्लीज" पढ़ा था| इस आलेख में उन्होंने कई उदाहरण देकर यह बताने की कोशिश की है कि आदतें (अच्छी और बुरी, दोनों) संक्रामक होती हैं| 'कृपया' और 'धन्यवाद' जैसे शिष्टाचार के शब्द जीवन को सुगम बनाने में मदद करते हैं। सेक्टर दो, नॉएडा में जाम लगा था| वह रास्ता टू वे तो है पर उस रास्ते पर डिवाइडर नहीं है| मैं ऑफिस के बाहर खड़ी अपनी कार बैक कर ही रही थी कि कुछ गाड़ियाँ जिन्हें दायीं ओर की कतार में चलना था, वह लाइन तोड़कर बायीं ओर आने लगी| जब तक मैं गाड़ी सीधा करती, पीछे से पुलिस की गाड़ी भी गलत कतार में आ खड़ी हुई| झल्लाती हुई पुलिस वाली गाड़ी की ओर देखते हुए मैंने कहा "कुछ नहीं हो सकता इस देश की ट्रैफिक समस्या का| जब पुलिसवाले ही नियम नहीं मानेंगे तो और किसी से क्या उम्मीद"| मेरी कार का शीशा नीचे था| यह तो नहीं मालूम कि उस गाड़ी में बैठे लोगों को मेरी बात सुनाई दे गयी या उसमे बैठे सीनियर पुलिस ऑफिसर ने मेरा चेहरा पढ़ लिया, वह गाड़ी से नीचे उतरे| फिर उन्होंने आसपास लगी गाड़ियों को वापस दायीं ओर भेजा| फिर अपने ड्राईवर से भी साइड होने को कहा और मेरी कार निकलवाकर ही अपनी गाड़ी में बैठे| मैं बेहद खुश हुई और उन्हें धन्यवाद ज्ञापित करते हुए आगे बढ़ी ही थी कि फिर से कुछ लोग दायीं ओर की कतार छोड़ बायीं ओर आ गए| मुझे फिर गाड़ी रोकना पड़ा| मैं लोगों को कतार में चलने की नसीहत दे रही थी | इसबार एक ऑटो में चालक के पास बैठे भद्रलोक उतरे और उन्होंने ठीक वही किया जो उनसे चार गाड़ी आगे खड़े पुलिस ऑफिसर ने किया था| मैंने उनसे भी धन्यवाद कहा और आगे बढ़ गयी| सौ लोगों की भीड़ में ऐसे दो लोग भी जब तक मौजूद हैं, उम्मीद बंध ही जाती है कि एक दिन हमारा समाज अच्छी आदतों से भी संक्रमित होना सीख लेगा| दफ़्तर जाते हुए मन खिन्न हो गया था पर लौटते हुए उम्मीदों का उजाला दिखा और मन शांत हुआ| शांत मन आत्ममंथन करता है; तो मैंने भी किया- आत्ममंथन | तय किया कि अगले दिन से मैं अपनी कार लेकर दफ़्तर नहीं जाऊँगी और सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करुँगी| फिर सार्वजनिक परिवहन इस्तेमाल करने के कई फायदे भी खुद को गिनाए और एक वाकया भी याद आया|


एक दिन दफ्तर के कुछ लोग दो अलग गाड़ियों में घूमने गए। हम भी गए थे । जाते हुए अपनी कार दफ्तर में ही छोड़ गए थे। चूँकि सभी साथ गए और साथ ही लौटना भी था, तो जिसे जो पार्किंग मिली, वहीं गाड़ी लगा दी। हमें लौटते हुए बड़ी देर हो गयी और हम पहले आ गए। बाकी जनता हमसे बहुत दूर जाम में फँसी रही। रात के दस बज चुके थे। दफ्तर तो पहुँच चुकी थी, पर मेरी कार के पीछे जिनकी कार लगी थी, वो तो जाम में फँसे हुए थे। पता था कैब बुक करने का कोई फायदा नहीं, फिर भी किया। वही हुआ, जो होना था। कैब नहीं आई। ग्रेटर नॉएडा से नॉएडा आने के लिए कैब मिल जाती है पर वापस जाना हो तो बमुश्किल ही कोई राज़ी होगा। याद आया आखिरी मेट्रो के आसपास बोटैनिकल गार्डन से परी चौक तक के लिए एक बस चलती है। एक मेनेजर से आग्रह किया तो वह हमें वहाँ छोड़ आए। हम बस में बैठ झपकी लेते हुए परी चौक पहुँचे और फिर ऑटो लेकर घर पहुँचे। पता चला नींद महँगी शय है। घर से दफ्तर तक की ज़िम्मेदारी पूरी करते हुए जो चीज अधूरी रह जाती है, वह है नींद।


अब अगले रोज़ दफ्तर आने के लिए पहले ऑटो लिया। झपकी लेते हुए परी चौक पहुँचे। फिर बस पर खिड़की वाली सीट पर बैठकर सो गए। बोटैनिकल गार्डन पर उतरकर फिर ऑटो में बैठ आँखें मूँद ली। ऑफिस की सीढियाँ चढ़ते हुए मन ही मन योजना बन चुकी थी कि अब हर रोज़ ऐसे ही सोते हुए दफ्तर पहुँचा जाएगा। कार का इस्तेमाल सिर्फ बारिश के मौसम में किया जाएगा। दफ्तर में प्रवेश करते ही घड़ी पर नजर पड़ी और मेरे सोने का सपना टूट गया। जिस दूरी को अमूमन ४५ मिनट के समय में तय करती थी, तीन गाड़ियाँ बदलकर दफ्तर पहुँचने में मुझे उस रोज डेढ़ घंटे लगे !!


उस रोज़ के बाद दफ्तर जाते हुए पूरे रास्ते अपने टूटे सपने के बारे में सोचती हूँ। सोचती हूँ कि किसी रोज़ मेरे घर के पीछे एक मेट्रो स्टेशन होगा और मैं नींद पूरी करते हुए दफ्तर पहुँच जाऊँगी। लोग नींद में सपना देखते हैं और मैं सपने में नींद देखती हूँ!

No comments:

Post a Comment