Wednesday, October 21, 2020

जीवनानंद दास

 पिछले साल चेन्नै के मिओट अस्पताल के लॉन में उगे हरे घास को देखकर उस पर लोटने की तीव्र इच्छा हुई | अगले ही क्षण महसूस हुआ कि हो न हो मेरे अंदर एक गधा है| इच्छा ऐसी विचित्र थी कि किसी से साझा करने में हिचकिचाहट महसूस हुई |  गधा होकर मनुष्य के शरीर में रहना साल रहा था |


पर जाड़े का अगला मौसम आते ही याद आया  कि बचपन में जाड़े के मौसम में दिन के भोजन के बाद जब घर की स्त्रियाँ घर के पीछे बागान में चटाई बिछाकर धुप सेंकते हुए स्वेटर बुना करती थीं या जूट पर ऊन से कलाकारी कर आसन बनाया करती थीं, मैं वहाँ उगे घास, घास के बीच में उग आये छोटे-छोटे फूल, दूर्वादलों, कालमेघ के पत्तों,  सत्यनाशी के फूल और भी न जाने क्या-क्या निहारा करती थी | संभव है मेरे अंदर के गधे का जन्म उन्हीं दिनों हुआ हो |


फिर जीवनानंद दास की कविताओं से गुजरते हुए उनकी कविता "घास" से साक्षात्कार हुआ | यह कविता से कम और स्वयं से साक्षात्कार अधिक था |  आज जीवनानंद दास के स्मृति दिवस पर उनकी उसी कविता का अनुवाद किया है आप सभी के लिए-


घास 

(अनुवाद : सुलोचना) 


कोमल नींबू के पत्तों की तरह नरम हरी रौशनी से 

               पृथ्वी भर गई है भोर की इस बेला में;

कच्चे चकोतरे के जैसी हरी घास - वैसा ही सुघ्राण -

                       हिरणदल दाँत से उखाड़ रहे हैं!

मेरी भी इच्छा होती है इस घास के इस घ्राण को हरित मद्य की तरह

                       भर-भर गिलास पीता रहूँ,

इस घास के शरीर को छुऊँ - आँखों में मलूँ,

                       घास के डैनों पर हैं मेरे पंख,

घास के भीतर घास होकर जन्मता हूँ किसी एक निविड़ घास-माता के 

                      शरीर के सुस्वादु अंधकार से उतरकर ।


 आकाशलीना 


सुरंजना, वहाँ नहीं जाना तुम,

नहीं करना बात उस युवक से;

लौट आओ सुरंजना:

नक्षत्र की रुपाली आग भरी रात में;


लौट आओ इस मैदान में, लहरों में;

लौट आओ मेरे हृदय में ;

दूर से भी दूर - बहुत दूर

युवक के साथ तुम नहीं जाना अब ।


क्या बात करनी है उससे? - उसके साथ!

आकाश की ओट में आकाश में

हो मृत्तिका की तरह तुम आज:

उसका प्रेम घास बन जाता है।


सुरंजना,

तुम्हारा हृदय आज घास:

बतास के उस पार बतास  -

आकाश के उस पार आकाश।


 सुदर्शना 


एक दिन म्लान हँसी लिए मैं

तुम जैसी एक महिला के पास 

युगों से संचित सम्पदा में लीन होने ही वाला था 

कि अग्निपरिधि के मध्य सहसा रुककर 

सुना किन्नरों की आवाज़ देवदार के पेड़ में,

देखा अमृतसूर्य है।


सबसे अच्छे हैं आकाश, नक्षत्र, घास, गुलदाउदी की रात;

फिर भी समय स्थिर नहीं है,

एक और गभीरतर शेष रूप देखने के लिए  

देखा उसने तुम्हारा वलय ।


इस दुनिया की चिर परिचित धूप की तरह है 

तुम्हारा शरीर; तुमने दान तो नहीं किया?

समय तुम्हें सब दान कर विधुर की भाँती कहता है 

सुदर्शना, तुम आज मृत।


 बिल्ली


 पूरे दिन घूम फिरकर एक बिल्ली से केवल मेरी ही मुलाकत हुई:

पेड़ों की छाया में, धूप में, बादामी पत्तों की भीड़ में;

कहीं कुछेक टुकड़े मछली के काँटों की सफलता के बाद

फिर सफेद मिट्टी के कंकाल के भीतर

देखता हूँ कि अपने हृदय के साथ मधुमक्खी की तरह निमग्न है;

लेकिन फिर भी उसके बाद गुलमोहर की देह नाखूनों से खरोंच रही है,

पूरे दिन सूरज के पीछे पीछे चल रही है वह।

एक बार वह दिखती है,

एक बार खो जाती है कहीं।

हेमंत की संध्या जाफरान रंग के सूर्य के कोमल शरीर में

उसे अपने सफेद पंजे से छू - छू कर खेलते देखा है मैंने;

फिर अंधकार को छोटे छोटे गेंदों की तरह पंजों से पकड़ लायी वह

समस्त पृथ्वी पर फैला दिया।



तुम्हें मैं 


तुम्हें मैंने देखा था इसलिए 

तुम मेरे कमल के पत्ते हुए;

शिशिर के कणों की तरह शून्य में घूमते हुए 

मैंने सुना था कि पद्मपत्र बहुत दूर हैं 

 ढूँढ ढूँढ कर पाया अंत में उसे ।


नदी सागर कहाँ जाते हैं बहकर?

कमल के पत्तों पर जल की बूँदें बनकर 

कुछ भी नहीं जानता - नहीं दिखता कुछ भी और 

इतने दिनों बाद मिलन हुआ मेरा तुम्हारा 

कमल के पत्ते के सीने के भीतर आकर।


तुमसे प्रेम किया है मैंने, इसलिए 

डरता हूँ शिशिर होकर रहने में,

तुम्हारी गोद में जल की एक बूंद पाने के लिए 

चाहता हूँ तुममें मिल जाना 

शरीर जैसे मिलता है मन से।


जानता हूँ कि रहोगी तुम - मेरा होगा क्षय 

कमल का पत्ता सिर्फ एक जल की बूँद नहीं।

अभी है, नहीं, अभी है, नहीं- जीवन चंचल;

यह देखते ही खत्म हो जाता है कमल के पत्तों का जल

समझा मैंने तुमसे प्रेम करने के बाद।

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ঘাস


কচি লেবুপাতার মতো নরম সবুজ আলোয়

                পৃথিবী ভরে গিয়েছে এই ভোরের বেলা;

কাঁচা বাতাবির মতো সবুজ ঘাস- তেমনি সুঘ্রাণ –

                       হরিনেরা দাঁত দিয়ে ছিঁড়ে নিচ্ছে !

আমারো ইচ্ছা করে এই ঘাসের এই ঘ্রাণ হরিৎ মদের মতো 

                       গেলাসে গেলাসে পান করি,

এই ঘাসের শরীর ছানি- চোখে ঘসি,

                       ঘাসের পাখনায় আমার পালক,

ঘাসের ভিতর ঘাস হয়ে জন্মাই কোনো এক নিবিড় ঘাস-মাতার

                      শরীরের সুস্বাদু অন্ধকার থেকে নেমে ।


আকাশলীনা


সুরঞ্জনা, ঐখানে যেয়োনাকো তুমি,

বোলোনাকো কথা অই যুবকের সাথে;

ফিরে এসো সুরঞ্জনা:

নক্ষত্রের রুপালি আগুন ভরা রাতে;


ফিরে এসো এই মাঠে, ঢেউয়ে;

ফিরে এসো হৃদয়ে আমার;

দূর থেকে দূরে – আরও দূরে

যুবকের সাথে তুমি যেয়োনাকো আর।


কী কথা তাহার সাথে? – তার সাথে!

আকাশের আড়ালে আকাশে

মৃত্তিকার মতো তুমি আজ:

তার প্রেম ঘাস হয়ে আসে।


সুরঞ্জনা,

তোমার হৃদয় আজ ঘাস :

বাতাসের ওপারে বাতাস -

আকাশের ওপারে আকাশ।


সুদর্শনা


একদিন ম্লান হেসে আমি

তোমার মতন এক মহিলার কাছে

যুগের সঞ্চিত পণ্যে লীন হতে গিয়ে

অগ্নিপরিধির মাঝে সহসা দাঁড়িয়ে

শুনেছি কিন্নরকন্ঠ দেবদারু গাছে,

দেখেছ অমৃতসূর্য আছে।


সবচেয়ে আকাশ নক্ষত্র ঘাস চন্দ্রমল্লিকার রাত্রি ভালো;

তবুও সময় স্থির নয়,

আরেক গভীরতর শেষ রূপ চেয়ে

দেখেছে সে তোমার বলয়।


এই পৃথিবীর ভালো পরিচিত রোদের মতন

তোমার শরীর; তুমি দান করোনি তো;

সময় তোমাকে সব দান করে মৃতদার বলে

সুদর্শনা, তুমি আজ মৃত।


 বেড়াল


সারাদিন একটা বেড়ালের সঙ্গে ঘুরে ফিরে কেবলি আমার দেখা হয়:

গাছের ছায়ায়, রোদের ভিতরে, বাদামি পাতার ভিড়ে;

কোথাও কয়েক টুকরো মাছের কাঁটার সফলতার পর

তারপর সাদা মাটির কঙ্কালের ভিতর

নিজের হৃদয়কে নিয়ে মৌমাছির মতো নিমগ্ন হয়ে আছে দেখি;

কিন্তু তবুও তারপর কৃষ্ণচূড়ার গায়ে নখ আঁচড়াচ্ছে,

সারাদিন সূর্যের পিছনে পিছনে চলেছে সে।

একবার তাকে দেখা যায়,

একবার হারিয়ে যায় কোথায়।

হেমন্তের সন্ধ্যায় জাফরান-রঙের সূর্যের নরম শরীরে

শাদা থাবা বুলিয়ে বুলিয়ে খেলা করতে দেখলাম তাকে;

তারপর অন্ধকারকে ছোট ছোট বলের মতো থাবা দিয়ে লুফে আনল সে

সমন্ত পৃথিবীর ভিতর ছড়িয়ে দিল।


 তোমায় আমি


তোমায় আমি দেখেছিলাম ব’লে

তুমি আমার পদ্মপাতা হলে;

শিশির কণার মতন শূন্যে ঘুরে

শুনেছিলাম পদ্মপত্র আছে অনেক দূরে

খুঁজে খুঁজে পেলাম তাকে শেষে।


নদী সাগর কোথায় চলে ব’য়ে

পদ্মপাতায় জলের বিন্দু হ’য়ে

জানি না কিছু-দেখি না কিছু আর

এতদিনে মিল হয়েছে তোমার আমার

পদ্মপাতার বুকের ভিতর এসে।


তোমায় ভালোবেসেছি আমি, তাই

শিশির হয়ে থাকতে যে ভয় পাই,

তোমার কোলে জলের বিন্দু পেতে

চাই যে তোমার মধ্যে মিশে যেতে

শরীর যেমন মনের সঙ্গে মেশে।


জানি আমি তুমি রবে-আমার হবে ক্ষয়

পদ্মপাতা একটি শুধু জলের বিন্দু নয়।

এই আছে, নেই-এই আছে নেই-জীবন চঞ্চল;

তা তাকাতেই ফুরিয়ে যায় রে পদ্মপাতার জল

বুঝেছি আমি তোমায় ভালোবেসে।

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