Sunday, October 18, 2020

दुर्गा

--------------

1. 

खोल दिए आश्विन ने अपने उदार कपाट 

तन गया माथे के उपर शरद का आकाश, 

पाँव के नीचे शिशिर से चमकती है घास

शिउली की सुगंध लिए तैर रही बतास 

शुभ्र मेघों के नीचे खिल उठा धवल कास 


अनामंत्रित ही आ धमकी है महामारी 

पृथ्वीवासियों की चिंता में घुल रहा है चाँद 

मद्धिम हो चला रात्रि का अंधकार 

कि तभी दूरदर्शन पर आता है समाचार 

जगने ही वाली हैं देवी योगनिद्रा से 

लोगों के मध्य उमग उठता है उल्लास |




2.


कुमारटुली में जमा कर ली गई है मिट्टी 

जो कुछ रोज़ पहले तक थी पाँव के नीचे 

और फिर रौंदी गई कई - कई बार 

ढाली जा रही है अब एक अलौकिक देह में 

जब होगा चक्षु दान और प्रतिष्ठित प्राण 

देवी कहकर पुकारेंगे उसे मृत्तिका संतान 



उत्सव के बाद क्या होगा देवी का 

वो मिलेगी जल में, नदी के तल में 

समुद्र उसे कर देगा नेस्तानाबूद 

क्या पूछा - "तो फिर कहाँ मिलेगी देवी?"

ज़रा गौर से देखिये अपने पाँव के नीचे की ज़मीं 

वहीं दबी पड़ी मिलेगी कोई मृत्तिका देवी !





3. 


वह आ रही है मंगलध्वनि के साथ 

होकर घोड़े पर सवार लोकालय में 

दुर्गा की आगमनी वार्ता के लिए 

चल रही है तैयारी अंतिम समय की 

कहीं रह न जाए कमी किसी चीज की

व्यस्त है मंडप का प्रत्येक मानुष इस वास्ते 

निद्रित है दक्षिणायन देवी अकाल बोधन के मध्य

की जाएगी संधि पूजा देर शाम के बाद 

कि खुल जाए देवी की तन्द्रा से चूर स्निग्ध आँखें 

पधारेंगी शक्ति की देवी षष्ठी के शुभ मुहूर्त में 

करने महिषासुर का वध, विराजेंगी मंडप में 

तीर-धनुष, गदा-चक्र, खड्ग-कृपाण, पद्म -त्रिशूल

घंटा और वज्र धारण कर त्रिनयनी दशभुजा 

करेगी जागरण, उत्सव के समाप्त होने तक |



4.


जल दर्पण ही चुना अपने विसर्जन के लिए सुलोचना ने

कि महामाया स्वयं भी भर-भर जाती है माया से हर बार 

जल में घुलकर पुनः मृत्तिका बन जाने से पहले 

देखती है अपना अलौकिक सौन्दर्य जल की आरसी में 

और करती है अचरज कि माया से भरे इस संसार में 

माया नहीं जकड़ती किसी को उसकी सुंदर प्रतिमा को 

जल में विसर्जित करने के पहले? अवसाद नहीं घेरता?

क्या उसके साथ ही बहा देते हैं लोग अपना शोक भी जल में?

देखते हैं वे किसका प्रतिबिम्ब जल दर्पण में प्रतिमा विसर्जित करते हुए?


शांत रहता है दशमी का चाँद कि वह है गवाह कई युगों से 

मनुष्य को अपने समस्त भय विसर्जित करते देखने का 

सदियों से शक्ति के ही मार्ग से, जीतते भय को उल्लास से|




5.


चला जा रहा है मनुष्यों का दल 

ढाक की थाप पर नाचते हुए 

"बोलो दुर्गा माय की जय " के उद्घोघ के साथ 


हो उठी है कातर देवी पित्रालय से जाते हुए 

धुप-दीप संग जल रहा है देवी का ह्रदय भी 

चेहरा ज़र्द है खोयछे में दिए गए हल्दी की भाँती  


है कौन सी शक्ति जो रोक लेती है शक्ति की अभिलाषा 

यही सोचते हुए डूबती चली जाती त्रिपुरसुन्दरी जल में 

पहले घुलता है जल में काजल, फिर लावण्य

घुल सके दुःख ऐसा जल कहाँ पाया जाता है पृथ्वी में !


होती है प्रतीति विसर्जित होकर 

कि विसर्जन के मूल में है पूजा 

और दुःख अकाल बोधन के  


पर अनुत्तरित ही रह जाता है वह प्रश्न 

कि त्यागता है कौन किसे 

देवी को मनुष्य या मनुष्य को देवी 

किसका प्रतिबिम्ब देखता है मनुष्य 

विसर्जित करते हुए उस प्रतिमा में !



6. 

जब जागी थी देवी योगनिद्रा से 

कर नदी में स्नान, पाँव में लगाया था आलता 

कर रहे थे श्रृंगार मुक्त केशों का नदी के जलबिंदु 

बतास में घुली थी एक नूतन गंध 

आँखों में डाल अंजन, माथे पर लगाकर कुमकुम

चढने लगी थीं सीढियां मंदिर की 


कुल पाँच सीढ़ी चढ़ उतर आई थीं उलटे पाँव 

लिए मंद मुस्कान अधरों पर 

लिखा था प्रवेश द्वार पर मंदिर के 

"रजस्वला स्त्रियों का प्रवेश वर्जित है"


जिसे तुम खड्ग कहते हो 

वह प्रश्न चिन्ह है देवी का 

कि है वह कौन जो रहती है 

मंदिर के अंतरमहल में 

फिर भी रह जाती है अपरिचित ही 

करते हो किसे तुम समर्पित फिर 

यह क्षुद्र देह्कोष और रक्तबिंदु 

देवी क्या केवल पाषाण की एक मूरत भर है ??



7.

सबसे अच्छी पत्नियाँ किसी बात का बुरा नहीं मानती थीं

सबसे अच्छी प्रेमिकाएँ नहीं करती थीं कोई भी गिला शिकवा 

सबसे अच्छी माएँ अपने हिस्से का खाना भी खिला देती थीं बच्चों को

सबसे अच्छी बहनें नहीं बताती थीं भाई से दुखती रग की व्यथा

"कैसी हो" पूछने पर मुस्कुरा देती थीं सबसे अच्छी सखियाँ


भाव का अभाव गढ़ता रहता था देवियों की नित्य नयी प्रतिमा!


8.

जो सामने थी 

औरत थी, कुलटा थी, रंडी थी 

जिसको देखा ही नहीं 

देवी थी, दयामयी थी, चंडी थी |

1 comment: