Thursday, April 17, 2014

घर से भागी हुई लड़की

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घर से भागी हुई लड़की
चल पड़ती है भीड़ में
लिए अंतस में कई प्रश्न 
डाल देती है संदेह की चादर
अपनापन जताते हर शख्स पर
पाना होता है उसे अजनबी शहर में
छोटा ही सही, अपना भी एक कोना
रह रहकर करना होता है व्यवस्थित
उसे अपना चिरमार्जित परिधान
मनचलों की लोलुप नज़रों से बचने के लिए
दबे पाँव उतरती है लॉज की सीढियां
कि तभी उसकी आँखें देखती है
असमंजस में पड़ा चैत्र का ललित आकाश
जो उसे याद दिलाता है उसके पिता की
करती है कल्पना उनकी पेशानी पर पड़े बल की
और रह रहकर डगमगाते मेघों के संयम  को
सौदामनी की तेज फटकार
उकेरती है उसकी माँ की तस्वीर
विह्वल हो उठता है उसका अंतःकरण
उसके मौन को निर्बाध बेधती है प्रेयस की पदचाप
और फिर कई स्वप्न लेने लगते हैं आकार
पलकों पर तैरते ख्वाब के कैनवास पर
जिसमें वह रंग भरती है अपनी पसंद के
यादें, अनुभव, उमंग  और आशायें
प्रत्याशा की धवल किरण
और एक अत्यंत सुन्दर जीवन
जिसमें वह पहनेगी मेखला
और हाथ भर लाल लहठी
जहाँ आलता में रंगे पाँव
आ रहे हों नज़र
कैसे तौले वह खुद को वहाँ
सामाजिक मापदंडों पर  .......


(c)सुलोचना वर्मा

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