Thursday, July 17, 2014

असली मुद्दा रह गया

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दो घंटे मेट्रो में खड़े -खड़े सफर करने और फिर एक घंटे गाड़ी चलाने के बाद समर बेहद थक गया था| घर पहुँचा, तो रात का खाना बनाने की ऊर्जा नहीं बची थी और भूखे पेट नींद भी नहीं आ रही थी | आँखें बंद करते ही उसे मेट्रो में सफर करते लोगों का चेहरा याद आ रहा था| वह उस रोज़ मेट्रो से सफर करते हुए न जाने कितनी कहानियाँ एक साथ जी गया । 

उसे उस लड़की का चेहरा याद आया जो अपनी सहेली को सिगमंड फ्रायड के बारे में बता रही थी। सहेली को  फ्रायड के बारे में सुनने में मजा नहीं आ रहा था, वह बारबार फ्रायड के बीच में भिन्डी की सब्जी का ज़िक्र ला रही थी। वह सोचने लगा कि उन दोनों के मुद्दे कितने अलग थे फिर भी वो सहेलियाँ थीं| 

दरवाजे के पास शायद वो कानून पढ़नेवाली दो छात्राएँ थीं जो 'हलफ़नामा" और "इकरारनामा" के बदले प्रयुक्त हो सकने वाला हिंदी शब्द ढूँढ रही थी। उनसे किसी ने ढूंढ़कर लाने को कहा था। साथ यह भी कि  प्रमाण पत्र के कई मायने हो सकते हैं। वह सोच रहा था कि ऐसी जरुरत कैसे आ गयी!! जिसने उन लड़कियों से ऐसा कहा होगा, उसका मुद्दा क्या रहा होगा!!  

उसके ठीक पास बैठी एक माँ अपने बच्चे को फीडिंग बोतल से दूध पिला रही थी और बच्चा अभी नींद के आगोश में आने ही वाला था कि उनका स्टेशन आ गया। माँ ने बोतल बच्चे के मुँह से हटाकर बैकपैक में रख लिया। बच्चा रोने लगा। माँ ने  एक काँधे पर बैकपैक और दुसरे पर बच्चे को उठाया और उतर गयी। वह सोचने लगा कि बच्चे की भूख किस्तों में मिटी होगी। रिश्ते और ज़िम्मेदारियों के बीच बँट माँ ने किस्तों में खुद  को जीया होगा। क्या बच्चे की भूख से ज्यादा जरूरी मुद्दा था सही स्टेशन पर उतरना!!  

सामने के सीट पर बैठी एक माँ अपने 4 साल के लड़के को मेट्रो में दौड़कर दूसरोँ की सीट पर जाने से रोका था। बच्चे के नहीं मानने पर उसने कहा था अगर वह ऐसा करेगा तो उसे कोई बोरियों में बंद कर ले जाएगा और हाथ काट देगा। समर याद कर मुस्कुराया था कि ठीक ऐसा ही बचपन में उसके भी माता-पिता डराने के लिए  कहते थे।  वह सोचने लगा बैलगाड़ी से बुलेट ट्रेन के जमाने में आ गए, पर बच्चों को डराने का तरीका नहीं बदला ! माँ का असली मुद्दा शायद अपने डर को बच्चे तक स्थानांतरित करना था ?

बिस्तर पर लेटा वह अभी करवटें ही बदल रहा था कि उसे आँगन में किसी के गिरने की आवाज़ सुनाई दी | वह सरपट आँगन की तरफ दौड़ पड़ा और वहां जाकर उसने देखा कि उसके पड़ोस में रहने वाले शम्भूनाथ पंडित जी का बड़ा बेटा, तथागत ,औंधे मुँह गिरा पड़ा है | समर उसे उठाने के लिए हाथ बढ़ाता है और जैसे ही तथागत उठता है, समर की नज़र पड़ती है आँगन में बिखरे पड़े कुछ बेशकीमती सामानों पर | समर गुस्से से लाल होकर तथागत के गाल पर दो तमाचे जड़ देता है और उसे अपने घर के एक कमरे में बंद कर शम्भुनाथ पंडित और उनकी स्त्री को बुला लाता है | 

"देखिये पंडित जी, माना कि तथागत बेरोजगार है और गरीबी से जूझ रहा है, पर इसका मतलब यह तो कतई नहीं कि वह चोरी करे" समर की ऊँची आवाज़ पर मुहल्ले के कुछ और लोग उसके घर आते हैं |

" एक तो तुमने इसे मारा, इसकी बेरोज़गारी का मज़ाक बनाया और अब लोगों को इकठ्ठा कर तमाशा बना डाला.....किस मिटटी के बने हो" शम्भूनाथ पंडित की पत्नी सावित्री का इतना कहना था कि पंडित जी भी सुर में सुर मिलाकर कहने लगे "भला इस तरह दी जाती है किसी को उसकी गरीबी की सज़ा ... और तुम मुहल्लेवाले, क्यों आ जाते हो बेरोज़गारी का तमाशा देखने  " 

पंडित जी की बात सुनकर लोग अपने अपने घरों में लौटने लगे | लौटते हुए लोग आपस में बात कर रहे थे, समर को भला बुरा कह रहे थे और उनकी बातचीत का मुद्दा था तथागत की बेरोज़गारी, उसकी गरीबी और उसकी दयनीय स्थिति !!!! तथागत के माता-पिता भी उसे संग लेकर अपने घर चले गए |

समर बुत बना घर के आँगन में खड़ा रह गया | उसने न्याय करने के लिए तथागत के माता -पिता को बुलाया था ; परन्तु उन लोगों ने चोरी के मुद्दे को बदल कर उन मुद्दों को उछाला जिस पर उन्हें समाज से सहानुभूति मिल सकती थी और मिली भी | असली मुद्दा रह गया !

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