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नहीं उगे थे मेरे दूध के दांत उन दिनों
फिर भी समझ लेती थी माँ मेरी हर एक मूक कविता
जिसे सुनाती थी मैं लयबद्ध होकर हर बार
जैसे पढ़ा जाता है सफ़ेद पन्ने पर ढूध से लिखी इबारत को
ममता की आंच में स्पष्ट हो उठता था मेरा एक-एक शब्द
माँ ने अपनी कविता में मुझको कहा चाँद
और उस चाँद से की मेरी नज़र उतारने की गुज़ारिश
चाँद ने बदले में लिख डाली कविता
अपनी रौशनी से मुझ पर
उन दिनों चाँद पर एक औरत
दोनों पाँव पसारे
रेशमी धागों से गेंदरा सिला करती थी
जिसके किनारों पर लगे होते थे
मेरी माँ की साड़ी के ज़री वाले पार
----सुलोचना वर्मा-----
नहीं उगे थे मेरे दूध के दांत उन दिनों
फिर भी समझ लेती थी माँ मेरी हर एक मूक कविता
जिसे सुनाती थी मैं लयबद्ध होकर हर बार
जैसे पढ़ा जाता है सफ़ेद पन्ने पर ढूध से लिखी इबारत को
ममता की आंच में स्पष्ट हो उठता था मेरा एक-एक शब्द
माँ ने अपनी कविता में मुझको कहा चाँद
और उस चाँद से की मेरी नज़र उतारने की गुज़ारिश
चाँद ने बदले में लिख डाली कविता
अपनी रौशनी से मुझ पर
उन दिनों चाँद पर एक औरत
दोनों पाँव पसारे
रेशमी धागों से गेंदरा सिला करती थी
जिसके किनारों पर लगे होते थे
मेरी माँ की साड़ी के ज़री वाले पार
----सुलोचना वर्मा-----
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