Sunday, August 17, 2014

चरवाहा

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मेरे छोटे से घर में है एक बड़ी सी खिड़की
और है दूर-दूर तक फैला हरा-भरा खलियान
उस बड़ी सी खिड़की के सामने


गुजरती है उस बड़े से खलिहान से होकर 
एक बेहद ही संकड़ी सी पगडण्डी
जिस पर से रोज गुजरता है एक चरवाहा
जो गाता है निर्गुण बांसुरी पर
अपने छरहरे बदन पर अंगोछा लिए


नहीं गा पाता है वह अब राग कम्बोज
कि चढ़ गयी भेंट उसकी आराधिका
संकीर्ण सामजिक मापदंडों की
और उसका शाश्वत प्रेम
दर्ज़ होकर रह गया है
उसकी बाँसुरी की धुनों में


जहाँ उसे गाना था राग आशावरी
निराश हो चली हैं उसकी तमाम छोटी आशाएं
याद दिला जाते हैं उसे उसके बड़े शुभचिन्तक
कि वह रहता है उसी इन्द्रप्रस्थ में
जहाँ शासन था कभी कौरवों का
जहाँ अब भी रहते हैं धृतराष्ट्र और दुःशासन
अपने-अपने आधुनिक व अद्यतन रूप में


उसे अब कृष्ण कोई नहीं मानता !

-----सुलोचना वर्मा-----

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