Saturday, August 2, 2014

चाय

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आलस की सुबह को जगाने के क्रम में
ठीक जिस वक़्त ले रहे हैं कुछ लोग
अपनी अपनी पसंद वाली चाय की चुस्की
उबल रही है कुछ जिंदगियां बिना दूध की चाय की तरह 
जो खौल खौल कर हो चुकी है इतनी कड़वी
जिसे पीना तो दूर, जुबान पर रख पाना भी है नामुमकिन


जहाँ ठन्डे पड़ चुके हैं घरों में चूल्हे  
धधक रही है  पेट की अंतड़ियों में
भूख की अनवरत ज्वाला
जो तब्दील कर रही है राख में इंसानियत आहिस्ता आहिस्ता
जैसे कि त्वचा को शुष्क बनाती है चाय में मौजूद टैनिन चुपके से


पहाड़ों के बीच सुन्दर वादियों में
जहाँ तेजी से चाय की पत्तियाँ तोड़ते थे मजदूर
दम तोड़ रही है इंसानियत झटके में हर पल
चाय के बागानों के बंद होते दरवाजों पर


बस उतनी ही बची है जिंदगी रतिया खरिया की
जितनी बची रहती है चाय पी लेने के बाद प्याले में 
रख आई है गिरवी अपनी चाय सी निखरती रंगत सफीरा
ब्याहे जाने से कुल चार दिन पहले बगान बाबू के घर
उधर बेच आई है झुमुर अपने चार साल के बेटे को
कि बची रहे उसकी जिंदगी में एक प्याली चाय बरसों


बदला कुछ इस कदर माँ, माटी और मानुस का देश
कि बेच आई माँ अपने ही कलेजे का टुकड़ा भूख के हाथों
आती है चाय बगान की माटी से खून की बू खुशबू की जगह 
और मानुस का वहाँ होना रह गया दर्ज इतिहास के पन्नों पर !


-----सुलोचना वर्मा--------

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