Sunday, August 3, 2014

प्रेम स्वप्न

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तुम आते हो मेरे जीवन में एक दिवास्वप्न की तरह
और छोड़ जाते हो कई प्रश्नचिन्ह मेरी आँखों के कोरों पर
स्वप्न टूट जाता है ; प्रश्न चुभने लगते हैं
मैं अपने आंसू की हर बूँद पर डाल देती हूँ एक मुठ्ठी रेत 
थोड़ा और भारी हो उठता है मन पहले से
और तैरने लगते हैं कई सवाल जेहन में 

तुम जीते हो स्वप्न हकीकत की ठोस ज़मीन पर
और जिंदगी जीना होता है किसी प्रयोग सा तुम्हारे लिए
चखा है स्वाद जबसे तुमने उस आम की गुठली का
छोड़ आई थी जिसे मैं खाकर तुम्हारी छोटी सी रसोई में
महसूस करती हूँ कसैलापन तुम्हारे शब्दों की तासीर में

मैंने अपने स्वप्न में भर लेना चाहा केवल प्रेम
जबकि प्रेम को पाना है किसी स्वप्न सा तुम्हारे लिए
जहाँ तुम्हारे कई सपनो में से एक सपना भर हूँ मैं
मेरे हर सपने की दीवार पर कीलबद्ध हो तुम
आज जब तौल बैठे हो तुम मेरे प्रेम को किसी सपने से
सोचती हूँ क्यूँ नहीं पढ़ा प्रेम का प्रतियोगिता दर्पण मैंने
कि नहीं है जवाब तुम्हारे पूछे गए प्रश्नों का मेरे पास
अब कौन तय करेगा कि स्वप्न से ज़रूरी है प्रेम 
या प्रेम से ज़रूरी कोई स्वप्न है जीवन में !

-----सुलोचना वर्मा ------

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