Friday, June 12, 2015

शून्य के जनसमुद्र में

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हो उठा है कुत्सित ये मनहूस शहर
किसी स्तनविहीन नग्न नारी की देह के समान 
और रात है एक पेड़ जिसपर लटक रहा है लालच
बनकर चमगादड़ों का कोई झुण्ड


खो गयी है इक रात उसके जीवन की 
जिसे वह जी सकती थी सोकर या जागते हुए
जिसे पी गया है अंधकार स्वाद की ओट में
और अवाक रह गयी अभिसार को निकली युवती


कहाँ से ढूँढे सांत्वना का कोई भी शब्द ऐसे में
जहाँ ले चुकी हैं समाधि हमारी भावनाएँ
गूँजती हो जहाँ साज़िश शून्य के जनसमुद्र में
जहाँ भोर होते ही पूजी जायेगी फिर एक कन्या


------सुलोचना वर्मा--------------

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