Thursday, June 4, 2015

मस्कुलर डिस्ट्राफी

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उसके नसों में बह रही है रिक्तता लहू की तरह
जो उसकी आँखों में है ठहरा, वह सूनापन है
शिथिलता जमी है मांसपेशियों में बर्फ की तरह
उसके अन्दर चरमराता हड्डियों का कम्पन है


उसकी साँसों में है दुर्गन्ध निराशा की
दिल की जगह जो धड़क रहा वो भय है
 जिंदा रहना उसका है एक बड़ी चुनौती
जो उसके रोमकूपों में है बसा, वो प्रलय है


उसकी साँसे तो चल रहीं हैं, पर वह जिंदा नहीं है
उसे इच्छा-मृत्यु देने में लोगों की सम्मति नहीं है
मुझे वह हम्पी के चट्टान से बने रथ की तरह लगती है
जिसमे पहिये तो लगे हैं, पर गति नहीं है|


-------सुलोचना वर्मा -----------

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