Tuesday, August 11, 2015

लोहे का पुल

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कुछ समय पहले हमारे गाँव बखरी बाज़ार जाते हुए 
पार करना होता था लोहे का एक पुल डरहा में
ठीक इसके नीचे बहती थी एक टूटे कमर वाली नदी
जो चमक उठती थी तेज धुप में आईने की तरह


पड़ गई हैं अब बहुत दरारें इस जर्जर लोहे के पुल मे
गाँव वालों के साथ सरकारी महकमे के रिश्तों की तरह
और ढह सकता है यह किसी भी क्षण भरभरा कर
इस देश के जननायक के प्रति हमारी आस्था की मानिंद


गाँव वाले यहाँ तक आते तो हैं तेज क़दमों से चलते हुए
पर ठिठक कर हैं रुक जाते कि विपत्ति अचानक ही है आती  
हालाँकि नीचे बहते नदी में इतना भी नहीं बचा है पानी
कि डूब सके कोई एक साल का बच्चा भी इसमें
फिर कौन होना चाहेगा आहत कीचड़ में सन कर
जबकि नहीं छुपी है सरकारी अस्पताल की हालत किसी से
जो कि है इस जगह से कोई चार -पाँच मील दूर


करती हूँ फिर भी यह उम्मीद मैं
कि जाऊं जब अगली बार मैं अपने गाँव 
देखूं कि हो गयी है मरम्मत टूटे पुल की
जो लोहे का होकर भी जर्जर है पड़ा 
दौड़ रहें हो उस पर लोग और मोटर गाड़ी
कि वह महज एक लोहे का पुल ही नहीं
जरिया है सम्पर्क का, दस्तावेज है इतिहास का 
जिसे नहीं बहने देना चाहिए सूख चुकी नदी में भी
कि बचा रहा इतिहास और बचा रहे सम्पर्क
फिर साथ गाँव वालों का बना रहे न रहे !!!


--------सुलोचना वर्मा---------------

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