Sunday, September 27, 2015

माया

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1.
वह गयी बाजार लेने सौदा
और ले आई एक झोला दुःख
पाव भर अवसाद
एक कनमा तिरस्कार के साथ
कई किलो बेबसी
कि कुछ दुःख बाजारू थे 

2.
फूलों की तरह रंगीन था उसका दुःख
उसकी आँखों में था दुःख रक्त जवा का
जमा था सीने में नीला अवसाद अपराजिता का
दहक रहा था उसके अंतस में तिरस्कार का पलाश
बेबसी महक रही थी हर पल बन रजनीगंधा
जबकि कुछ भी नहीं था सुन्दर उसके जीवन में फूलों जैसा


3.
उसने ख़ारिज किए दुनिया के तमाम रंग औ' बाजार
और जा बैठी रूखे बाल लिए जिंदा ही अंतिम स्थान पर
जलती चिता पर उसके अट्टहास ने धरा मायावी रूप
माया से हुए लोग आकर्षित, चर्चा हुई उसकी दिव्यता की 
भरने लगी उसकी झोली सस्ते और मँहगे चढ़ावों से
कि माया के बाजार से बड़ा कोई बाजार नहीं होता


सुख के रंगीन बाजार में भटकती है अदृश्य माया!!!

-------सुलोचना वर्मा------------

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