Sunday, October 4, 2015

मैं बुद्ध हुई जाती हूँ

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मेरे दिशाहीन सपने
ढूंढ़ते हैं आवारा रातों में
झड़े हुए हरश्रृंगार के कुछ फूल
बिजली की तार पर बैठा नीलकंठ
या नील नदी की लुप्त कोई एक धारा


जैसे लिख जाना चाहते हों समय के पन्नों पर
कुछ सुन्दर महकते यादगार बेशकीमती लम्हें
जैसे उकेर रहे हों कैनवास पर मुक्ति को आतुर आत्मा
और शायद थोड़ा शोक पतझड़ में पेड़ से गिरे किसी पत्ते का


आह! मैं बुद्ध हुई जाती हूँ आवारा रातों में सपनों के बोधिवृक्ष तले

-------सुलोचना वर्मा-----------

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