Saturday, January 31, 2015

मौत

------------------------
जब चूमे मुझे हिमालय की बर्फ सी निष्ठुर मौत
तो बस मिले स्वाद उस गुलाबी बर्फ के गोले का
जो खाया करते थे हम अक्सर अपने बचपन में
हमारी मुलाक़ात हो खुशियों की ही तरह संक्षिप्त
जब बाँहे डाले मौत अन्धकार में कभी मेरे गले में  

 
मैं चाहूँगी कि उड़े मेरी आत्मा उस चिड़ियाँ की तरह
जो कर देती है बादलों को भी अनदेखा उड़ते हुए
या चख लेती है स्वाद कभी उनका हवा मिठाई जान
रखती नहीं है डर मन में वह बिजली के कौंध जाने का 
नहीं देखना चाहती मैं भी अपनी परछाई मौत को मान


जब पक जाए उम्र की फसल समय की घूप से
कह देना चाहूँगी तब "हाँ" मैं भी बिना कुछ सोचे
जैसे त्याग देता है पेड़ पीले पत्तों को पतझड़ में
झर जाना चाहूंगी मैं जीवन के उस बसंत के पार
पसन्द होगा मुझे बहते रहना अनंत के निर्झर में


मौत हो सकती है एक बेहद खूबसूरत यात्रा भी
जिसका नहीं होता होगा कोई भी गंतव्य स्थान
नहीं होता होगा जहाँ कोई अप्रिय या बहुत ख़ास
फिर थक जाता है इंसान भी जीते-जीते एक दिन
और मौत है इक कभी न ख़त्म होनेवाला अवकाश


----सुलोचना वर्मा------

No comments:

Post a Comment