Wednesday, January 14, 2015

अखबार

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क्या पढ़ते हो अखबार तुम भी 
जिसमे होता है ज़िक्र मुद्दों का
जो उगलती हैं आग की लपटें
क्या तुम तक पहुँचती है ताप
सुन पाते हो क्या शब्दों को तुम


क्या तुम भी देखते हो सपने 
सामान्य मनुष्यों की ही तरह
तो क्या देखा कभी ऐसा ख्व़ाब
जिसमे तुमने जलायी हो मशाल
अमावश्या की किसी रात में


हम पढ़ रहे हैं ज़िक्र अखबारों में 
रैलियों का,व्यवसायिक जलसों का
जिनकी अगुआई करते हो तुम 
पर नहीं पढ़ पाते तुम्हारी प्रतिक्रिया
किसी भी सामाजिक सरोकार पर


क्या झुकी थी तुम्हारी भी आँखे
जब निर्वस्त्र की गयी आदिवासी लड़की
क्या कहा तुमने सांत्वना सन्देश में
जो नहीं छाप पाया कोई भी अखबार
या नहीं पढ़ पाए वे तुम्हारा मौन


आखिर कुछ तो बड़बड़ाया ही होगा तुमने
जब नहीं मिल पायी श्मशान में दो गज़ जमीन
दलित लड़की को अपनी ही अंत्येष्टि में यहाँ
अच्छा यह बताओ कैसा था स्वाद उस दही का
जो खाया तुमने किसी पर्व पर एक दलित के घर


तनिक बताओ कि क्या रही तुम्हारी प्रतिक्रिया 
जब आहत हुए मछुआरे तट रक्षकों के हाथों
और देश की सेना कर आई नष्ट कोई पुलिस चौकी
जैसे खो जाते हैं मसले बड़े-बड़े विज्ञापनों के बीच
क्यूँ क्षीण हो जाती है इन मसलों पर आवाज़ तुम्हारी


बताओ न, क्या पढ़ते हो अखबार तुम भी

------सुलोचना वर्मा------------

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