Saturday, January 17, 2015

आतंक

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वो आते हैं धर्म की संकीर्ण गलियारों से 
और गाते रहते हैं गुप्त गीत आतंक का 
आतंक सुनते हैं कुछ लोग उन गीतों में
कुछ लोग गीतों से ही हो जाते हैं मुग्ध
इसलिए उन्हें आतंक सुनायी नहीं देता


उनकी आवाज़ में होती है सम्मोहन शक्ति
जो कर सकती है आकर्षित देवदूतों को
जिसपर कर सकते हैं विश्वास देवता सभी
उनके मुख से निकलता शब्द होता है श्राप 
जो करता रहता है प्रदूषित आत्मा धरती की


वो रौंद सकते हैं तमाम सुन्दर चीजें दुनिया की
कर सकते हैं दिग्भ्रमित लोगों को धर्म की आड़ में
मना सकते हैं जश्न फिर अपनी घातक खुशियों का
बस तृप्त हुआ करता है जंगली उनके अन्दर का
जब जल उठता है समाज इस आतंक की आग में 

ऐसी ही किसी विभीषिका की घड़ी में किसी रोज 
टूट चुके हों जब हम सभी अपने-अपने अन्दर 
मैं चाहूँगी कि देख पायें एक ऐसा चेहरा सभी
दे सके जो सांत्वना कि हम देख पाए जीवन में
हरे घास का मैदान और तारों से भरा आकाश


सुना सके जो हमें कोई कहानी चमत्कार की
और बता सके कि होनेवाला है अंत आतंक का
फडफ़ड़ाता है जैसे कोई दीया बुझने से पहले
बढ़ रहा है आतंकवाद भी वैसे अपने चरम पर
बस उगने ही वाला है एक सूरज उम्मीदों का


-----सुलोचना वर्मा----------

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