Saturday, January 24, 2015

ऊब

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ऊब गयी हूँ मैं सर्दियों की ठण्ड से
जैसे ऊब जाती हूँ गर्मियों की गर्मी से
ऊब जाती हूँ कभी निद्राहीन रातों से
तो कभी नींद के आने से जाती हूँ ऊब 


ज्यूँ शुरू होता है घटना तापमान मौसम का
मिमियाने लगती हैं समस्त हड्डियाँ शरीर की 
नींद की सलाइयों पर ख़्वाब बुनती है गर्माहट
तभी देखकर भेड़ों का विरोध, मैं ऊब जाती हूँ


आती है अक्सर सपनों में साइबेरिया की चिड़ियाँ
और भरती रहती है मेरे ख़्वाबों का सारा आकाश
कि तभी बजा जाता है मौसम घंटी गर्मी आने की
लौटती हुई चिड़ियाँ को देखकर मैं ऊब जाती हूँ


मेरी ऊब की टीस से पीली हो जाती है धरती वसंत में
और गाती रहती है कोयल मेरी नींद में उठती हूक को 
पक जाती हैं गेहूँ की बालियाँ भी मेरी ऊब को देखकर
ठीक ऐसे में आम को बौराते हुए देख मैं ऊब जाती हूँ


बंद कर देती हूँ मैं अपनी चाहतों को समय के पिंजड़े में
ठहर सा जाता है समय, जो है इस्पात से भी अधिक कठोर
करती हैं आक्रमण बिजली की तरह आत्मघाती आकांक्षायें
फिर एकबार देखकर समय की कठोरता मैं ऊब जाती हूँ


मैं करती हूँ प्रार्थना इक ऐसे भोर की,जो निगल ले मेरी ऊब
एक ऐसे दिन की, जहाँ सभी कुछ हो औसत सही तरीके से 
शाम भी हो तो ऐसी कि कह सकूँ दिन अच्छा ही गुज़र गया
और नहीं करनी पड़े प्रार्थना रात में कभी ऊब से उबरने की


--------सुलोचना वर्मा---------

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