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बुंदेलखंड के जमींदार हिरण्यकश्यप अपने इकलौते
बेटे प्रह्लाद की अंधभक्ति को लेकर बेहद चिंतित थे | प्रह्लाद ने एकबार अपनी माँ कयाधु को कहते सुन लिया था कि ईश्वर की आराधना से
संसार में किसी भी वस्तु को प्राप्त किया जा सकता है और यही बात उसके बाल मन में
घर कर गयी थी | वह अपना ज्यादातर वक़्त पूजा-अर्चना में लगाया
करता था और हर बात के लिए ईश्वर पर आश्रित रहने लगा था | न उसका मन पढ़ने में लगता न ही खेलने में | वह अपने आसपास के लोगों से भी कटा-कटा सा रहता था | शुरू-शुरू में जमींदार हिरण्यकश्यप ने बच्चे की इन गतिविधियों को उसके विकास
की उम्र मानकर और बालपन की बालसुलभ प्रवृत्ति मानकर अनदेखा किया; परन्तु जब कुछ समय के बाद भी यह गतिविधियाँ कम होने की बजाय
बढ़ती रहीं, तो वे प्रह्लाद से कठोरता से पेश आए | इसी क्रम में एकदिन उन्होंने अपने आदेशपाल से घर से सभी
देवी-देवताओं की मूर्तियाँ निकाल उन्हें जंगल में रख आने का आदेश दिया | आदेशपाल ने आज्ञा का यथाशीघ्र पालन किया और जमींदार के घर
की सभी देवी-देवताओं की मूर्तियों को जंगल में रख आया |
जमींदार हिरण्यकश्यप लगभग आश्वस्त हो चुके थे
कि घर से मूर्तियों के निष्कासन से उनकी समस्या का समाधान हो गया था कि तभी किसी
ने उन्हें सूचना दी कि प्रह्लाद जंगल चला गया और वहाँ जाकर वह ईश्वर के तप में लीन
हो गया | उन्हें महसूस हुआ कि उन्होंने जल्दबाजी में गलत फैसला ले लिया | वह प्रह्लाद को लाने स्वयं जंगल गए पर प्रह्लाद ने उनके
समक्ष शर्त रखा कि वह घर तभी जाएगा जब वह जंगल में रखी मूर्तियों को घर ले जा
सकेगा | हिरण्यकश्यप को प्रह्लाद के बाल हठ के आगे
झुकना पड़ा और वह प्रह्लाद और मूर्तियों के संग भारी मन से घर लौट गए |
अगले दिन शरत पूर्णिमा थी | हिरण्यकश्यप ने काफी विचार करने के बाद अपनी समस्या के
समाधान के लिए अपनी छोटी बहन होलिका को बुला भेजा | जमींदार को होलिका की सूझबूझ पर बहुत विश्वास था | होलिका हिमाचली लड़के इलोजी से प्रेम करती थी और एक अरसे से उससे विवाह करना
चाहती थी परंतु इस अन्तर्जातीय विवाह को हिरण्यकश्यप मान्यता देने को तैयार न थे |
उस रोज़ जब बड़े भाई के बुलावे पर होलिका आई तो भाई ने बहन के
समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि यदि वह अगले वर्ष शरत पूर्णिमा के दिन तक किसी प्रकार
प्रह्लाद की अंधभक्ति समाप्त करने में सफल रही, तो वह स्वयं इलोजी से उसका विवाह करवाएँगे | होलिका अपने बड़े भाई के इस प्रस्ताव पर राज़ी हो गयी | उसके पास इलोजी से विवाह करने का और कोई दूसरा रास्ता भी न था |
अगले दिन जब प्रह्लाद पूजा करने बैठा, तो होलिका ने उससे कहा "तुम इतना पूजा-पाठ करते हो,
काश ! कि तुम्हें इसका पुण्य भी उतना ही मिलता"
"उतना ही मिलता !!! क्या कहना चाहती हैं आप?"
प्रह्लाद नहीं समझ पा रहा था |
"देखो, पूजा तुम करते हो
| फूल और फल हमारा माली उगाता है; प्रसाद तुम्हारी माँ बनाती हैं और पूजा के स्थान की सफाई तो
घर का सहायक करता है| तुम्हारी पूजा का पुण्य तुम्हारे अतिरिक्त उन
सभी को बराबर हिस्से में मिलता है| तो पूरा पुण्य
तुम्हें तो नहीं मिला न ?" कहते हुए होलिका
प्रह्लाद की आँखों में देखने लगी |
"अरे हाँ !!!" कहता हुआ प्रह्लाद सोच में
पड़ गया था|
"परेशान होने की कोई बात नहीं| अगर तुम चाहो, कल से बागीचे की
देखभाल में माली की मदद कर सकते हो और कुछ समय बाद तुम्हें स्वयं फूल और फलों को
उगाना आ जायेगा| इसी प्रकार तुम हमारे गोशाला जाकर गायों की
सेवा कर सकते हो, उन्हें चराने ले जा सकते हो और उन्हें दूहना भी
सीख सकते हो | हो सके तो सहायक के बदले कल से पूजा स्थान की
सफाई तुम ही करो" कहती हुई होलिका ने उसे एकसाथ कई उपक्रमों में व्यस्त रखने
का कारगर उपाय ढूँढ लिया था | प्रह्लाद की
सहमती देख लगे हाथ उसने माली से लेकर सहायक तक सभी को उचित निर्देश दे दिया |
प्रह्लाद ईश्वर को पाने के लिए कुछ भी कर सकता
था | अगले दिन सुबह उठते ही पहले वह माली के साथ काम
पर लग गया | फिर वह गौशाला गया और गौ पालन के गुर सीखने लगा
| पूजा स्थान की सफाई सबसे आसान काम था | इन कामों में अब
प्रह्लाद को तीन से चार घंटों का समय देना पड़ता था | फिर शारीरिक श्रम के चलते वह शाम में थकान की वज़ह से जल्दी ही सो जाता |
पूजा के लिए अब कम समय मिलता; पर वह संतुष्ट रहता कि पूजा का सारा पुण्य उसे अकेले ही मिल रहा था | कुछ ही महीनों में प्रह्लाद ने अपनी लगन से ये सब काम तो
सीखा ही; साथ ही गाय और पेड़-पौधों से उसे लगाव हो गया |
लाजिम भी था जिनके साथ वक़्त बिताया, उनसे लगाव तो होना ही था |
अभी पाँच महीने ही बीते थे कि एक दिन फिर
होलिका पूजा के ऐन वक़्त प्रह्लाद के सामने उपस्थित हुईं और कहने लगीं "मैं बेहद खुश हूँ कि अब तुम
अपनी पूजा की सारी व्यवस्था स्वयं करते हो | ईश्वर भी तुमसे बेहद खुश होंगे | बस एक बात की कमी
है अब"
"अब किस बात की कमी है!!" प्रह्लाद ने
आश्चर्यचकित होकर पुछा था |
"बिना शिक्षा के तुम न मन्त्र का सही उच्चारण
जानते हो न ही कर्मकांड की सही विधि का ही ज्ञान है तुम्हें | इस सबके लिए जिस ज्ञान की आवश्यकता होती है, वह तो विधिवत शिक्षा के पश्चात ही मिलना संभव हो सकता है और
यह है बड़ा मुश्किल काम | न जाने तुम कर
पाओगे या ... " कहती हुई होलिका एक बार फिर प्रह्लाद की आँखों में देखने लगी |
"क्यूँ नहीं कर सकता | जरूर करूँगा | ईश्वर के लिए तो मैं कुछ भी कर सकता हूँ"
प्रह्लाद ने होलिका की अपेक्षानुसार ही उत्तर दिया था |
कुछ समय के बाद प्रह्लाद ने अपने पिता से कहकर
एक प्रतिष्ठित विद्यालय में अपना नामांकन करवाया और मन लगाकर पढ़ने लगा | प्रकृति और ईश्वर को जानने की ऐसी उत्सुकता कि पाठ्यक्रम के
इतर पुस्तकों को पढ़ने के लिए प्रह्लाद पुस्तकालय भी जाने लगा | अब वह पूजा के
लिए मुश्किल से आधा घंटा ही निकाल पाता था | कुछ समय बाद उसके वैज्ञानिक प्रयोगों की माया थी कि वह ईश्वर की अपेक्षा
प्रकृति में अधिक विश्वास करने लगा था |
जमींदार हिरण्यकश्यप अपने पुत्र में इस
सकारात्मक बदलाव देख बेहद प्रसन्न हुए और अपनी बहन से किए हुए वायदे के मुताबिक
शरत पूर्णिमा को उसका ब्याह उसके प्रेमी इलोजी के साथ धूमधाम से करवाया | उन्हें इस बात का भी भान हुआ कि किसी भी समस्या का हल हठ या
कठोरता की अपेक्षा सूझबूझ से किया जाना चाहिए | इसी उपलक्ष्य में उन्होंने पुराने जर्जर हो चुके रीति रिवाजों के बहिष्कार के
लिए प्रतीकात्मक तौर पर पुराने जर्जर हो चुके सामानों को जलाया और इसे होलिका के
नाम पर होलिका दहन कहा | होलिका दहन में
होलिका को जलाया जाना पुरानी बात थी; आज के जमाने में
होलिका द्वारा समाज की रुढ़िवादी परम्पराओं और वर्जनाओं को जला नए प्रतिमान गढ़ने को
होलिका दहन कहा गया |
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