Thursday, July 26, 2018

जीवन का स्वाद

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उन्होंने अपने बचपन में किसी बुजुर्ग को कहते हुए सुना था कि जीवन को स्वाद लेकर जीना चाहिए | चाय की प्याली में डुबोकर खाए गए बिस्कुट की तरह नहीं बल्कि पान की गिलौरी की तरह देर तक चबाकर | बस उसी रोज़ से वह जिंदगी के तमाम एहसासों को स्वाद से समझने लगीं | जब भी किसी ने उनसे लाड़ जताया, उन्होंने "चाशनी" सा महसूस किया | जब माता या पिता ने डपटा, तो उन्होंने "दालचीनी" महसूस किया | अपने माता-पिता के अतिरिक्त उन्हें सगे-संबंधी और पड़ोस के लोगों का भी भरपूर प्यार मिला था | एक लम्बे अरसे तक उनका व्यक्तित्व आकर्षक और सहानुभूतिपूर्ण ही रहा | किसी किस्म की क्रूरता से वह कोसों दूर रहीं |

रात के अंधेरे में या दिन के समय जब वह अकेली होतीं थीं, तो "बर्फ" जैसा महसूस करती थीं | ऐसे क्षणों में भयभीत होने के बावजूद किसी से मदद मांगने की बजाय वह इतिहास के साहसिक घटनाओं का स्मरण कर लेतीं या खुद को समझातीं कि अपने ऊपर भय को हावी होते देना स्वयं को कमजोर बना देना होता है | कभी आँखें बंद कर अतीत की चाशनी में डूब जातीं और इस पर भी अगर भय हावी रहता तो उसी अतीत से उधार लेकर दालचीनी चबाने लगतीं |

उनका असली नाम क्या था, यह तो किसी को पता ही न चलता यदि उस गाँव के पहले डॉक्टर की विधवा, जिसे लोग डॉक्टरनी कहते थे, से उनका लगाव न होता | वह बतौर नर्स सरकारी डिस्पेंसरी में कार्यरत थीं और उनके हिंदी उच्चारण से लोगों ने अनुमान लगाया था कि शायद वह पश्चिम बंगाल की रहने वालीं थीं | उम्रदराज स्त्री थीं, तो किसी ने उनके बारे में ज्यादा कुछ जानने की कोशिश नहीं की | जब वह उस गाँव में पहली बार आईं थीं, तब भी नहीं | वह हर किसी के लिए नर्स ही रहीं | शायद उस गाँव की पहली और इकलौती नर्स | उम्रदराज होने के बावजूद उनके नैन-नख्स इतने तीखे थे कि इस बात का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता था कि अपनी युवावस्था में वह बेहद खूबसूरत रही होंगी | उन दिनों नर्स सफेद रंग की साड़ी ही पहना करतीं थीं | कुछ लोग उन्हें विधवा समझते रहे तो कुछ अविवाहित | उनकी आवाज़ में एक किस्म का कड़कपन था जिसकी वज़ह से लोग उनसे थोड़ी दूरी बरतना ही श्रेयस्कर समझते थे |

नर्स का जन्म एक सुखी परिवार में हुआ था और उन्होंने बचपन से ही अपने माता-पिता के बीच ऐसा सुंदर सामंजस्य देखा था कि उन्हें लगता जब उनका ब्याह होगा तो उनका भी उनके जीवन साथी से वैसा ही सामंजस्य होगा | उस गाँव के लोगों को भले ही न मालूम हो, आपकी जानकारी के लिए यह बताना बेहद जरूरी है कि हमारी नर्स का नाम कनक प्रभा था, वह विधवा थीं और उनकी एक बेटी थी, जो शिक्षित तो थी , पर जिसने ब्याह करने के बाद घर बसा लेने को ही अपने जीवन का अंतिम लक्ष्य समझा | घर बसाने में वह इतना रम गयी कि यह भी भूल गयी कि भारत भू-खंड के किसी कोने में उसकी माँ भी रहती थी | नर्स, जो कि एक सम्पन्न परिवार की थीं, उनका ब्याह हुआ तो एक डॉक्टर से ही था, पर उन दोनों के बीच उस सामंजस्य का अभाव हमेशा रहा जो उसके माता-पिता के बीच था | फिर विवाह के चंद सालों के बाद ही उनके पति का कैंसर से निधन हो गया था | डॉक्टर पति ने कैंसर का पता चलते ही सबसे पहले कनक को नर्स ट्रेनिंग के लिए भेजा था और फिर वह जिस अस्पताल में कार्यरत थे, वहाँ सिफारिश कर कनक की नौकरी लगवा दी थी | नर्स कनक ने पति के इस उपकार को आजीवन याद रखा |

नर्स कनक लज़ीज़ मांसाहारी व्यंजनों की बेहद शौक़ीन थीं और बिना कलफ़ लगी साड़ियाँ नहीं पहनती थीं | गाँव में रहते हुए उन्होंने बेटी को शहर के हॉस्टल में रख पढ़ाया और फिर ग्रेजुएशन के बाद  उसके आगे न पढ़ने के फैसले को मंजूरी देते हुए उसका ब्याह एक संभ्रांत परिवार के लड़के से कर दिया | बावन वर्ष की आयु में अब वह एकबार फिर से अकेली हो गयी थी | अकेली तो वह पति की मृत्यु के बाद से ही हो गयी थी पर बेटी नामक ज़िम्मेदारी से मुक्ति क्या मिली, उन्होंने पहली बार अकेले हो जाने का "सुपाड़ी सा कसैलापन" महसूस किया | सप्ताह के अन्य दिनों में वक़्त की जिह्वा पर यह कसैलापन इतना नहीं चढ़ता जितना कि छुट्टी वाले दिन | इस कसैलेपन से कुछ देर बचने के लिए वह डॉक्टरनी के घर जाती और घंटो बिताकर शाम में लौट आती |

विवाह के दो वर्षों के बाद जब उनकी बेटी झिनुक माँ बनी, तो बहुत समय बाद उन्होंने मन में मिश्री घुलता हुआ सा अनुभव किया था | टेलीग्राम मिलते ही वह दो दिनों का सफर पूरा कर बेटी के ससुराल पहुँच गईं थीं | न सिर्फ माँ और नानी होने के नाते उन्होंने बेटी के घर की सभी ज़िम्मेदारियाँ संभाली, बल्कि एक नर्स होने की ज़िम्मेदारी भी बखूबी निभाई | अपना सारा समय बेटी और उसके बच्चे की देखभाल में लगाया करती थीं |

डेढ़ महीने बेटी के ससुराल में रहने के बाद एक दिन नर्स ने "चिरायता" सा महसूस किया | उनकी आँखों में सूजन आ गया था और उन्होंने साड़ी में कलफ़ लगाना छोड़ दिया था | वह अचानक से एकसाथ बीमार भी हो गयी थीं और बूढ़ी भी | तन अधिक बीमार था या मन, यह तो नर्स ही बता सकतीं थीं | बेटी के स्वभाव में यदि रूखापन न था, तो वह लगाव भी न था जो उन्हें वहाँ उसके पास रोक लेता |  बेटी व उसके परिवार की सेवा करने की बनिस्बत नर्स को अनजान मरीजों की सेवा करना बेहतर विकल्प लगा और वह फिर से दो दिनों के सफर के बाद अस्पताल आ गई थीं | उन पर एक किस्म की थकान हावी हो रही थी | कुछ ही महीनों में दायीं आँख में गुलाबी उभार नजर आने लगा | शुरुआत में किसी किस्म का दर्द नहीं था, तो नर्स को किसी उपचार की भी जरूरत नहीं महसूस हुई | फिर आँखों का डॉक्टर उस गाँव में तो क्या, आसपास के शहरों में भी न था | कई बार कई प्रकार के घरेलू उपचार करने के बाद जब कोई लाभ न हुआ, तो फिर उन्होंने उपचार के विषय में सोचना ही छोड़ दिया |

१९८८ की गर्मियों में अस्पताल में एक नए डॉक्टर का आगमन हुआ जो किसी बड़े शहर से स्थानान्तरण के फलस्वरूप इस गाँव में आए थे | कुछ दिनों के बीतते ही नए डॉक्टर ने नर्स से उनकी आँख के विषय में जानना चाहा था जिसे नर्स ने "कुछ नहीं....बस जरा सा उभार.." कहते हुए टालने की कोशिश की थी | डॉक्टर ने जब उन्हें कैंसर का अंदेशा जताते हुए दिल्ली जाकर अपने परिचित आँखों के डॉक्टर से दिखाने का सुझाव दिया था, तो मुस्कुराहट के साथ हाथ जोड़ कर आभार प्रकट करने के अलावे उन्होंने कुछ भी नहीं कहा |

नर्स उन दिनों दार्शनिक हो चलीं थीं या बेटी की उनके प्रति उदासीनता ने जीवन के लिए उनमें निरसता का संचार कर दिया था; जीवन में उनकी रूचि कम होने लगी | पहले उन्होंने डॉक्टरनी के घर जाना छोड़ा, जो उस गाँव में उनके जाने का एकमात्र ठौर था | फिर कुछ दिनों बाद अस्पताल भी छूटा | अब उनकी आँखों में उभार और सूजन के अतिरिक्त खुजली भी एक समस्या का रूप ले चुकी थी | वह आस-पड़ोस के बच्चों से अनुरोध कर और उन्हें पाँच -दस पैसों का लालच देकर अपनी दायीं आँख की बरौनी निकालने को कहतीं | बच्चे पैसों के लालच में अपने अभिभावकों से छुपा कर ऐसा करते भी |  अपने प्रति इस क्रूरता के बाद नर्स कुछ समय के लिए नमकीन महसूस करती | अगले दिन फिर आस-पड़ोस के बच्चों से वही मनुहार |

एक दिन जब वह सुबह उठीं और बच्चों को बुलाने आँगन के बाहर गयीं, बच्चे उन्हें देख छूप गए | उन्हें खट्टा महसूस करना चाहिए था, पर उन्होंने गौर किया कि ऐसा कुछ महसूस ही नहीं  हुआ | दिन में पड़ोस से कोई खाना दे गया | यह तो चाशनी महसूस करने वाली बात थी, पर आश्चर्य ! ऐसा कुछ भी महसूस न हुआ | घर बिखड़ा पड़ा था, रसोई में जूठे बर्तनों का अम्बार लगा था और उन्हें कुछ भी महसूस नहीं हो रहा था | कुछ महसूस होने के अभाव में वह रात में घर का दरवाजा बंद नहीं कर पायीं |

अलसुबह उनके घर का दरवाजा खुला देख जब उनका हाल-समाचार लेने लोग उनके कमरे में गए, तो पाया कि उनकी इकलौती नर्स बेस्वाद हो चुके जीवन का त्याग कर चुकीं थी | आलमारी के शीशे से कलफ़ लगी साड़ियाँ झाँक रहीं थीं | पास के टेबल पर झिनुक के बचपन की तस्वीर रखी हुई थी, जिसमें वह माँ की साड़ी लपेट मुस्कुरा रही थी |

नर्स की मौत की खबर आग की तरह फैल चुकी थी | डॉक्टरनी, जो खबर सुनते ही नर्स के अंतिम दर्शन के लिए वहाँ गयीं थीं, नर्स का शव देख रोते हुए कह रहीं थीं “अभागी जीवन का स्वाद लेना चाहती थी और जिंदगी ने इसे ही पान की गिलौरी की तरह चबा डाला” |

1 comment:

  1. Ektu Borro horof er lekha chai.
    ato chhoto print frustrate koray amakay

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