Friday, May 2, 2014

एक नदी

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मेरे और तुम्हारे देश के बीच
बहती है एक नदी
जो तय करती है हम दोनों की
अपनी- अपनी पहचान
जिसे मैं गंगा कहती हूँ और तुम पद्मा
नदी, जो एक है
बँटकर भी नहीं बदल पाती है अपना स्वाद
और झेलती रहती है असंख्य पीड़ा
उसकी असंतुष्टि भर देती है उसमे अवसाद का उन्माद
बहा ले जाती है दूर दूर तक अपने दोनों किनारों को
निज के विभाजन का उत्तरदायी जान
करती है चित्कार, जो गूँजता है शुन्य में
जिसे नहीं सुन पाते किसी भी एक देश के बासिन्दे
फिर हमारी निर्ममता पर होकर विवश
समेट लेती है अपने दोनों किनारों को
और ढूँढने लगती है अपने आस्तित्व का अर्थ |

नदी का आत्ममंथन, कहीं मंद ना कर दे उसकी धार
और उसके निज के होने के अभिप्राय का अनुसंधान
कहीं ना कर दे उसे किसी अनजान पथ पर विचलित
आखिर वो नदी है; और उसे पालन करते रहना है 
निर्दिष्ट दिशा में अविरल चलते रहने का क्रम......

जब बाँटा गया नदी को
तो तय कर दी गयी उसकी भाषा
हमारी सीमा-रेखा में वो करेगी छल-छल
और तुम्हारे देश में कल-कल बहेगी
हमारी सोच कितनी भी संकीर्ण हो
नदी का विशाल ह्रदय है
लम्बी कर देती है हर उस वस्तु की छाया
जो उसमे जाकर गिरती है !
बता देती है हर एक को उसकी औकात
या यूँ कहें कि व्यक्त करती है
अपने उदार व्यक्तित्व को नए प्रकाश में |

नदी की बात छोड़ो, हम अपनी बात करते हैं
चलो अपने सपनो को हम आज पंख देते हैं
और प्रेम को देते हैं एक नया आयाम
सुनो, मैं इस पार से झांकती हूँ अपने गंगा में
तुम उस पार अपने पद्मा में झाँको
और नदी, जो है हम दोनों की अपनी
कर देगी विस्तृत हमारी छाया
और नदी के लगभग बीचोबीच
हमारे मिलन का साक्षी होगा अनंत आकाश !!!!

सुलोचना वर्मा

1 comment:

  1. बहुत ही सुन्दर , भावप्रवण ...

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