Monday, May 12, 2014

पागल चित्रकार

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मेरे सपनों के कैनवास पर
जल से ही सही
पर उकेरुंगा तुम्हारी तस्वीर
और तुम्हें वृष्टि की सूरत देकर
रंग लेगा मल्हार अपनी तकदीर


पर नहीं चाहूँगा सोख ले तुम्हे मिटटी
तो इस चित्र में तुम्हे बरसना होगा पथरीली सतह पर
बह जाना होगा लेकर रूप सरिता का
नहीं चाहूंगा बंधों तुम कभी तटबंधों में
समर्पण तुमसे नहीं मांगूगा मैं वनिता का


तुम्हें अल्हड़पन देने को बलखा जायेगी मेरी तूलिका
फिर आँखें मूंदकर सुनूँगा तुम्हारा कल कल
ले जाना चाहता हूँ तुम्हे ऊँचे पहाड़ों तक
जहाँ निहारूंगा तुम्हे झरना बनते देख
अपने रोमानी जीवन के समस्त बहारों तक


साथ निभाऊंगा तुम्हारा मैं, दूर दूर रहकर
और करता रहूँगा प्रवाहित अपनी संवेदनाओं का शिलाखंड
जब जब करेगा नीरस मुझे तुम्हारा मौन
जबकि जानता हूँ यह मेरी भक्ति मात्र होगी
तुम्हारा प्रसाद पानेवाला होता हूँ मैं कौन


करूंगा वेदोच्चारण, गाऊंगा मंगल गान
जब होगा तुम्हारा मिलन अपने सागर के संग
वो बन जाएगा मांझी, थाम लेगा पतवार
और इस घटना के पश्चात सर्वस्व तुम्हारा होगा
बस रह जायेगी नम मेरे घर की दीवार


जानता हूँ जब वृष्टि बन जायेगी नदी,
वो गुजरेगी मेरे पथरीले अंतस से 
मैं हो जाऊँगा उसके जैसा पावन, निर्विकार
प्रेम में नदी को ही जीता रहूँगा कई साल 
आखिर मैं ठहरा एक पागल चित्रकार |


सुलोचना वर्मा

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