Saturday, May 24, 2014

मोती

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मैं मरुथल की रेत-सी
गाती हूँ राग मियाँ की मल्हार
जिसमे करती हूँ ज़िक्र तुम्हारा
बड़े ही जतन से
गांधार स्वर की मानिंद


तुम हवा से बन जाते हो बवंडर,
भींच लेते हो मुझे अपने दामन में
उकेरता है एक बहुआयामी अमूर्त रेखा चित्र
रेगिस्तान की ज़मीं पर
हमारा यह सूफी कत्थक वैले


जल उठता है रात का अँधेरा
लिखता है मेरे दामन पर प्यार-पानी से
फिसलने लगते हैं गीत के बोल मेरे होठों से
और हो जाते हैं बंद किसी सीपी में 


सुनो हवा ,
सावन के बाद जो आओ मुझसे मिलने
लगा लेना कान अपना सीपी में
और सुन लेना कजरी धीरे से
ढूँढ लेना मेरा वजूद उस सीपी में बंद
मेरे शब्दों के मोती में 


सुलोचना वर्मा

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