Friday, May 16, 2014

वटवृक्ष

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क्यूँ व्यथित हो वटवृक्ष
जो रेंग रही हैं तुम्हारे तन पर अमरबेलें
और जकड़ रही है निशिदिन
तुम्हे निज बाहुपाश में


नहीं, तुम असहाय नहीं
ये  है सामर्थ्य तुम्हारा
कि धरा है तुमने धरणी को अपनी बहुभुजाओं से
देना औरो को आश्रय, रचा है विधाता ने तुम्हारी नियति में


सनद रहे ! तुम्हारी कोटरों में
रहते है विषयुक्त काले सर्प
फैलाकर चलते फन, जब भी जाते भ्रमण को
और अपने गरल पर व्यर्थ ही करते दर्प


तुम्हारी क्षमता का परिचायक हैं
तुम्हारी असंख्य शाखाओं पर पत्तों की भरमार
तुम्हें होना है परिणत कल्पतरु में
और करना है पोषित ये समस्त संसार


ना हो व्यथित, कि तुम हो वटवृक्ष
सह लो थोड़ा संताप, धरे रहो तुम धीर
और करो अभिमान निज पर कि तुम्हारी छाया में रहकर
सिद्धार्थ "गौतम" कहलाये


पढ़ा होगा हर एक पत्ते को तप के तमाम वर्षों में 
और तथागत ने सीखा होगा धैर्य का पाठ तुम्ही से
सीखा होगा तृष्णा का त्याग, प्रज्ञा की वृद्धि तुम्हारे आचरणरुपी धर्म से
धर्म, जो यह बताए कि करुणा से भी अधिक मैत्री है आवश्यक |
 

सुलोचना वर्मा

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