Sunday, June 1, 2014

कहो ना प्रेयस

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कहो ना प्रेयस, क्या करोगे
पढ़कर 
मेरी जिन्दगी की किताब 
जबकि नहीं पढ़ पाये हो वह ख़त
रखा है जो मेरी पलकों की दहलीज़ पर
बड़े ही सलीके से मैंने एक अरसे से


कहते हो कि गंध है मुझमे मेरे गाँव की मिट्टी की
पर नहीं सूंघ पाते हो मेरी देह के मर्तबान को
रखा है जिसमे किसी की यादों का अचार
जो महक उठता है तुम्हारे लफ्फाजी की धूप पाकर
और कर जाता है खट्टा मेरे बेबस मन का स्वाद


कहो ना प्रेयस, क्या ले पाओगे
मुझसे मेरे असन्तुष्ट शब्दों को 
छिड़क पाओगे उनमे संतुष्टि का गुलाब जल
खा पाओगे मर्तबान में पड़े अचार को स्वाद लेकर
भर पाओगे खाली मर्तबान में स्नेह का रूह अफज़ा ?


कहते हो कि बन जाओगे रांझा तुम मेरे प्रेम में
लिख जाओगे अपनी उम्र मेरे नाम खाकर ज़हर
जबकि मेरी जिंदगी को घेर रखा है मुसीबतों के पहाड़ ने
और दरकार है इसे किसी दशरथ मांझी जैसे की
जो करे हौसले से घनिष्टता, ढाए मुसीबतों पर कहर 


कहो ना प्रेयस,  बन पाओगे वटवृक्ष
जिस पर रेंगे मेरे प्रेम की तरुवल्लरी
मान पाओगे कि फिर भी मेरा अपना है आस्तित्व
क्या जानते हो नहीं रखूंगी व्रत वट-सावित्री का मैं 
क्या समझ पाओगे इस रूप में तुम मेरा स्त्रीत्व


कहते हो कि नहीं समझ आती है मुझे प्रेम की भाषा 
दिखलाना चाहते हो प्रेम का सुन्दर प्रतीक ताजमहल
जबकि सुलग रही हूँ कब से मैं जीवन की अंगीठी पर
रूह का तवा जहाँ हो चुका है जलते जलते लाल
और कसैला हो चुका है जुबान के ताम्रपात्र में रखा जल


कहो ना प्रेयस, सावन बन पाओगे
बरस पाओगे मेरे अंतस की सूखी धरती पर
मांज पाओगे जतन से मेरे रूह का लाल तवा
बदल पाओगे मेरी जुबान की तासीर
मेरी परवाह के साथ समय के नीम्बू सत्व से


कहो ना प्रेयस, प्रेयस बने रहोगे
यह जानकार कि नहीं आसान होता
प्रेयसी के मन की किताब को पढना
पढते रहना और प्रेयस बने रहना
जीवन के अनंत वसंत के उस पार


--सुलोचना वर्मा------

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