Thursday, June 5, 2014

माथे पर शिकन

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नहीं हँसते अब हाथी अरण्य में
विचरते हैं लिए माथे पर शिकन
तस्कर ही तस्कर फैले जंगल में
और शेष रह गए हैं  जीव नगण्य


रहता है शेर अब चिड़ियाघर में 
और चिड़ियों के माथे पर शिकन
थक गया विचर कर सूने नभ में
अब हाय ले वो किस धाम शरण


दिन रात कट रहे वृक्ष चन्दन के
है भुजंग के माथे पर शिकन
हो गया परिणत क्यूँ रणभूमि में
देता था कभी आश्रय जो अभ्यारण


चिंतित वसुधा के संग पुष्प लता
उभरा प्रकृति के माथे पर शिकन
छुप ना जाएँ किताबों की स्याही में
रह जाएँ न बन मात्र उदाहरण


नित हो रहा क्षीण ओजोन परत
इस ब्रह्माण्ड के माथे पर शिकन
साँसों में घुल रहा विषैला धुआँ
और धरती का हो रहा चीर हरण 


बनाकर पेड़ों के शव पर महल
अब मानव के भी माथे पर शिकन
जो करता रहा इस कदर विकास
क्या हो पायेगा संतुलित पर्यावरण


मृतप्राय प्रकृति और मानव है मौन
लिए अपने-अपने माथे पर शिकन
पिघल रहा हिमालय, प्रदूषित गंगा
भौतिकता में है तन्द्रामय अंतःकरण


(c)सुलोचना वर्मा
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