Wednesday, December 10, 2014

बिन पता के लिफ़ाफ़े में

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काश तुम सहेज पाते मेरे प्रेम को
मोती की तरह वक़्त के सीपी में
जो हो गया है लुप्त धीरे-धीरे
मैमथ की ही तरह धरती से 


मैं अक्सर अपने सपनों में
बुनती हूँ एक मफ़लर काले रंग का
जिसे चाहती हूँ लपेटना तुम्हारे गले में
मेरी बाँहों के हार सा


पर जब मैं देखती हूँ खुद को आईने में
तो देखती हूँ केवल एक ठूँठ
जिस पर करती हैं आरोहण
तुम्हारी यादें वनलता की मानिंद


चला देती हूँ रवीन्द्र संगीत उस कमरे में
दिन के भोजन के ठीक बाद
जहाँ अब रहते हो तुम बड़े सुकून से अकेले
क्यूँकि मेरे एकांत में बहुत सक्रिय होते हो तुम


झाँकती हैं एक जोड़ी आँखें आजकल
उस बिना साँकल वाली खिड़की से
जहाँ लगाना था नीले रंग का पर्दा
ओढ़ बैठी हूँ मैं दर्द की नीली चादर


भेजती हूँ खत कुछ दिनों से बिन पता के लिफ़ाफ़े में
जबकि तुम्हारे ठिकाने का सन्देश दे ही जाती है हवा
कि नहीं मयस्सर मुझको तुम्हें परेशाँ देखना
और मेरा कद मुझे पशीमान होने की इज़ाज़त नहीं देता


----सुलोचना वर्मा-------------

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