Saturday, December 13, 2014

एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी

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एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी 
बस सोती रही देर तक
घण्टों नहाया झरने में
धूप में सुखाये बाल
और गाती रही पुरे दिन कोई पुराना गीत


एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी 
बिंदी को कहा "ना"
कहा चूड़ियों से "आज नहीं"
काजल से बोली "फिर कभी"
और लगा लिया तन पर आराम का लेप


एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी 
न तोड़े फूल बगीचे से
न किया कोई पूजा पाठ
न पढ़ा कोई श्लोक ही
और सुनती रही मन का प्रलाप तन्मयता से


एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी 
तवे को दिखाया पीठ
खूब चिढ़ाया कड़ाही को
फेर लिया मुँह चाकू से
और मिलाकर घी खाया गीला भात


एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी 
न साफ़ की रसोई
न साफ़ किया घर
नहीं माँजा पड़ा हुआ जूठा बर्तन
और अंजुरी में भरकर पिया पानी


एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी 
रहने दिया जूतों को बिन पॉलिश के
झाड़न को दूर से घूरा
झाड़ू को भी अनदेखा कर दिया
और हटाती रही धूल सुन्दर स्मृतियों से


एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी 
न ही उठाया खिड़की से पर्दा
न ही घूमने गयी कहीं बाहर
न मुलाक़ात की किसी से
और बस करती रही बात अपने आप से


एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी 
जो उसे करना था रखने को खुश औरों को
कि उसे नहीं था मन कुछ भी करने का
जीना था उसे भी एक दिन बेतरतीबी से
और मिटाना था ऊब अभिनय करते रहने का


एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी 
दरअसल वह गयी थी जान
कि नहीं था अधिक ज़रूरी
कुछ भी जिंदगी में
जिंदगी से अधिक


एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी 
बस मनाया ज़श्न
अपने जिंदा होने का


------सुलोचना वर्मा -----------

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