Friday, January 31, 2014

आशा

तुम इला की सुलोचना बन
सहस्त्र युगों में कभी कभार
बनकर आती हो नारी सम्मान की आशा
जैसे मिलता है समुद्र सीपियों को, मोतियों को


जब करती हो समुद्र मंथन,
पी लेती हो सांसारिक हलाहल
उजागर करती हो इस संसार के
युगों से पाले अंधविश्वासों को, कुरीतियों को


फिर दहक उठती हो तुम
बनकर पलाश का फूल
जब किसी की प्रथम प्रतिश्रुति पर
जीती हो विषमताओं को, परिस्थितियों को


कभी बन जाती हो शंख ध्वनि
करती हो नाद जीवन के कुरुक्षेत्र में
उकेरती हो शब्दों से चित्रित जब
सत्य घटनाओं को, स्मृतियों को


और जब तुम अपनी पीड़ा के
वट वृक्ष के नीचे योग मुद्रा में बैठ
रचती हो भावनाओं से अनुप्राणित ग्रंथ
लोग पढ़ लेते हैं शब्दों को, प्रतीतियों को


कर डालते हैं तुम्हारे शब्दों की समीक्षा
दे जाते हैं तुम्हे सम्मान का पदक
पर क्या तौल पाते हैं अपनी हृदय-तुला पर
तुम्हारी संवेदनाओं को, अनुभूतियों को


सुलोचना वर्मा

 

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