Thursday, January 23, 2014

मन मयूर

जब विवेक कर रहा था शून्यता की सैर
और रह गया था हृदय में केवल लेश
भर कर पंखों में तब हौसले की उड़ान
मन मयूर जा पहुँचा दूर मेघों के देश


कर परिणत निज उर के घन को
नैनो से की नीर की वृष्टि
जल में भींग धूप की किरणों ने
कर डाली तब इंद्रधनुष की सृष्टि


मन के श्वेत मयूर ने लिया
इंद्रधनुष से सात रंगों का ऋण
दमक उठी फिर उसकी काया
सात रंगो से वो हो गया उत्तीर्ण


जब भी नभ पर बादल है छाता
थिरक उठता है लिए नयी आशा
पीहू पीहू कर कितना कुछ कहता
पर क्या समझे कोई उसकी भाषा


टूट गये पर थिरक थिरक कर
नही पहुँचा कँहि उसका संदेश
मौन हो गया चितवन का पाख़ी
रह गये पंख बन स्मृति अवशेष


सुलोचना वर्मा

 

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