Monday, January 6, 2014

प्रेम विधाता

जब आषाढ़ का मेघ
वाष्प ना रह, तरल हो गया
तब प्रेमी युगल का मिलना
कुछ और भी सरल हो गया

क्रमशः बढ़ चला था
धमनियों में रक्त का संचार
प्राण चकित था देखकर
शिरा और उपशिराओं का तांडव बारंबार

नैनो में थी प्रेम की पाती
और अधरों पर केवल मिथ्या
उस रोज़ ज़ुम्मन बन गया था
शताक्षी का प्रेम विधाता

आज भी वो वातायन से झाँक
हर सजीव व निर्जीव वस्तु में
पा लेना चाहती है ज़ुम्मन को
धरती से अनंत तक- हर सू में

उधर ज़ुम्मन ने लगा लिया है
टाट का बुना हुआ पैबंद अपने दरीचे में
रौशन हो उठता है उसका आँगन
जब करती है दीपदान शताक्षी अपने बगीचे में

ढो रही है वो अब भी अलौकिक प्रतिदीप्त प्रकाश पुंज
और उसका एकाकी मन आज अभिमान करता है
उसके मानस पटल पर एक अजीब सा विरक्ति बोध है
यूँ भी, वेदना का आवेग आभार का सुयश कब गान करता है

सुलोचना वर्मा

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