कमरे की दायीं ओर पूरब में रौशनदान से मनी प्लांट की बेलें झाँक रही हैं और उसके ठीक नीचे दरवाजे पर लटक रहा है ताम्बई रंग का पर्दा | इसी पर्दे से छनकर सुबह की धूप कमरे में उजाला करती है| इस पर्दे को हटाने पर आँखों को हरियाली नसीब हो सकती है; पर यह भी हो सकता है कि कोई जख्म हरा हो जाए| इसलिए यह पर्दा अमूमन हटाया नहीं जाता है| दरवाजे के पास ही आयताकार दर्पण वाला सिंगार-मेज है जिस पर वक्त की बेरहमी के निशान जगह-जगह परिलक्षित हो रहे हैं| जब यह सिंगार-मेज न होकर एक हरा-भरा पेड़ था, तब इसने भी आनंद लिया था शरद की गुनगुनी धूप का, महसूस किया था बासंती हवा का सरसराकर बहना और नहाने का सावन की पहली बारिश में | फिर इक रोज उसे काटा गया, चीर डाला गया, उसमें कीलें ठोक दीं गयीं, उसमें जड़ा गया दर्पण और वह बन गया सिंगार-मेज !! उसमें जो दर्पण जड़ा है, वह अक्सर अवाक होकर देखता है उन तमाम चेहरों को जो उसमें झांकते हैं और समझ नहीं पाता कि लोग दिन में कई - कई बार उसमें क्या देखने के लिए झांकते हैं जबकि उसमें चेहरे के सिवाय कुछ भी नहीं दिखता | उसे मलाल होता है कि काश वह लोगों को दिखा पाता उनके अंदर का बढ़ता अभिमान, उनके आँखों से गायब होती लज्जा, उनके अंदर बढ़ती ईर्ष्या, उनके अंदर पैदा होता अवसाद .... यदि ऐसा होता तो शायद इंसान प्रतिदिन थोड़ा और बेहतर होता जाता ! दर्पण अपने ही ख्यालों में गुम रहता है....
वह बायीं ओर मुड़ती है| उत्तर दिशा की ओर दीवार पर काले रंग की वलयाकार घड़ी टंगी है जो न जाने कब से किसी बुरे वक्त को दर्ज किए बंद पड़ी है| इस घड़ी की स्मृति में बजता है टिकटिक का अनवरत लय स्पंदन | घड़ी के शीशे के ऊपर नीचले भाग में, जहाँ छह का निशान बना है, डायनासोर का स्टीकर लगा है| वह बचपन से सुनती आयी थी कि वक़्त ने ऐसा सितम किया कि डायनासोर पृथ्वी से लुप्त हो गए; पर जिस जगह उसकी निगाह टिकी हुई है, वहाँ देखने पर ऐसा लगता है जैसे कि डायनासोर ने पिछले कई जन्मों का बदला लेते हुए कमबख्त वक़्त को निगल लिया और घड़ी की सुइयाँ रुक गयीं | दीवार घड़ी से थोड़ी दूरी पर पच्चीस वाट का एलइडी बल्ब न जाने कितनी बिजली बचाता हुआ जल रहा है और दूधिया रौशनी बिखेर रहा है | क्या उसे पता होगा कि कुछ बचाते हुए खुद भी खर्च हो जाना होता है !!
वह पलटती है| दक्खिन की ओर जो दीवार है, वह बिलकुल उसके जीवन की तरह ही बेरंग और बेनूर है| एक फोटो फ्रेम तक नहीं है उस दीवार पर! अरसा हुआ इस स्मृति-विहीन दीवार के ठीक बीचोंबीच बिजली की एक तार बल्ब लगाये जाने की प्रतीक्षा करती हुई लटक रही है| इसी दीवार पर अपना सर टिकाए एक पलंग पसरा हुआ है| पलंग के सिरहाने पर बीच में फूल और पत्तियों वाली नक्काशी की गयी है जबकि दोनों किनारों पर हंस उकेरा गया है| पलंग के पायताने पर कमल की पंखुड़ियों-सा आकार उकेरा गया है| कमरे की सफेद फर्श पर जब दूधिया रौशनी पड़ती है, तो वह क्षीरसागर सा प्रतीत होता है| न जाने ऐसा कब हुआ होगा कि कमल, हंस और क्षीरसागर ज्ञान का प्रतीक न रहकर ऐश्वर्य का प्रतीक बना दिए गए !!!
कमरे की छत से लटका हुआ पंखा लगातार घूम रहा है| उसकी गति इतनी तेज है कि एकटक देखते रहने पर इसके स्थिर होने का भान होता है | कहा गया है कि जो कुछ भी इंद्रियों के दायरे में आता है, वो कभी स्थिर नहीं हो सकता| पर पंखे के पास तो इंद्रियों का अभाव है और इसीलिए उसकी गति को नियंत्रित किया जा सकता है| पृथ्वी भी तो न जाने कब से अपने केंद्र से गुजरने वाले काल्पनिक अक्ष पर लगातार घूम रही है| क्या किसी को पता है कि पृथ्वी के पास कितनी इन्द्रियां होती हैं?
कमरे का प्रवेश द्वार पश्चिम की ओर है और उसके पास ही खाली जगह है जहाँ शायद किसी अलमारी को होना था| दक्खिन की दीवार पर लटकती बिजली की तार अक्सर इस रिक्त स्थान को देख संतोष कर लेती है| क्या हुआ जो उसकी किस्मत में बल्ब नहीं, उस रिक्त स्थान को भी तो अलमारी नसीब न हो पाई!! कुछ चीजों का बस इन्तजार ही किया जाता है; कुछ रिश्ते नहीं पहुँच पाते मुकाम तक और कुछ स्थान रिक्त ही रह जाते हैं|
वह बायीं ओर मुड़ती है| उत्तर दिशा की ओर दीवार पर काले रंग की वलयाकार घड़ी टंगी है जो न जाने कब से किसी बुरे वक्त को दर्ज किए बंद पड़ी है| इस घड़ी की स्मृति में बजता है टिकटिक का अनवरत लय स्पंदन | घड़ी के शीशे के ऊपर नीचले भाग में, जहाँ छह का निशान बना है, डायनासोर का स्टीकर लगा है| वह बचपन से सुनती आयी थी कि वक़्त ने ऐसा सितम किया कि डायनासोर पृथ्वी से लुप्त हो गए; पर जिस जगह उसकी निगाह टिकी हुई है, वहाँ देखने पर ऐसा लगता है जैसे कि डायनासोर ने पिछले कई जन्मों का बदला लेते हुए कमबख्त वक़्त को निगल लिया और घड़ी की सुइयाँ रुक गयीं | दीवार घड़ी से थोड़ी दूरी पर पच्चीस वाट का एलइडी बल्ब न जाने कितनी बिजली बचाता हुआ जल रहा है और दूधिया रौशनी बिखेर रहा है | क्या उसे पता होगा कि कुछ बचाते हुए खुद भी खर्च हो जाना होता है !!
वह पलटती है| दक्खिन की ओर जो दीवार है, वह बिलकुल उसके जीवन की तरह ही बेरंग और बेनूर है| एक फोटो फ्रेम तक नहीं है उस दीवार पर! अरसा हुआ इस स्मृति-विहीन दीवार के ठीक बीचोंबीच बिजली की एक तार बल्ब लगाये जाने की प्रतीक्षा करती हुई लटक रही है| इसी दीवार पर अपना सर टिकाए एक पलंग पसरा हुआ है| पलंग के सिरहाने पर बीच में फूल और पत्तियों वाली नक्काशी की गयी है जबकि दोनों किनारों पर हंस उकेरा गया है| पलंग के पायताने पर कमल की पंखुड़ियों-सा आकार उकेरा गया है| कमरे की सफेद फर्श पर जब दूधिया रौशनी पड़ती है, तो वह क्षीरसागर सा प्रतीत होता है| न जाने ऐसा कब हुआ होगा कि कमल, हंस और क्षीरसागर ज्ञान का प्रतीक न रहकर ऐश्वर्य का प्रतीक बना दिए गए !!!
कमरे की छत से लटका हुआ पंखा लगातार घूम रहा है| उसकी गति इतनी तेज है कि एकटक देखते रहने पर इसके स्थिर होने का भान होता है | कहा गया है कि जो कुछ भी इंद्रियों के दायरे में आता है, वो कभी स्थिर नहीं हो सकता| पर पंखे के पास तो इंद्रियों का अभाव है और इसीलिए उसकी गति को नियंत्रित किया जा सकता है| पृथ्वी भी तो न जाने कब से अपने केंद्र से गुजरने वाले काल्पनिक अक्ष पर लगातार घूम रही है| क्या किसी को पता है कि पृथ्वी के पास कितनी इन्द्रियां होती हैं?
कमरे का प्रवेश द्वार पश्चिम की ओर है और उसके पास ही खाली जगह है जहाँ शायद किसी अलमारी को होना था| दक्खिन की दीवार पर लटकती बिजली की तार अक्सर इस रिक्त स्थान को देख संतोष कर लेती है| क्या हुआ जो उसकी किस्मत में बल्ब नहीं, उस रिक्त स्थान को भी तो अलमारी नसीब न हो पाई!! कुछ चीजों का बस इन्तजार ही किया जाता है; कुछ रिश्ते नहीं पहुँच पाते मुकाम तक और कुछ स्थान रिक्त ही रह जाते हैं|
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