Sunday, December 4, 2016

ओलोंग चाय

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चाय की पत्तियों की मानिंद महकती तुम्हारी यादें 
हैं प्रेम की पगडंडी पर उगी मेरी हरित चाहनाएँ 
अक्सर घुल जाता है मेरा चीनी सा अभिमान जिसमें 
और मैं बीनती रह जाती हूँ बीते हुए खूबसूरत लम्हें 

मानो घोषपुकुर बाईपास से दार्जिलिंग तक का सफर 
दौड़ता है स्मृतियों का घोड़ा चुस्की दर चुस्की कुछ ऐसे 
सिर्फ "ओलोंग" सुन लेने से बढ़ जाता है जायका चाय का 
मैं संज्ञा से सर्वनाम बन जाना चाहती हूँ अक्सर ठीक वैसे 

जिंदगी होती है महँगी मकाईबाड़ी के ओलोंग चाय की ही तरह 
काश यहाँ भी मिलती कुछ प्रतिशत छूट देते हैं जैसे बागान वाले 
शायद चढ़ चुका है हमारे मन के यंत्र पर चाय के टेनिन का रंग 
वरना सुन ही लेते पास से आ रही सदा हम निष्ठुर अभिमान वाले 

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