Monday, December 5, 2016

इन दिनों (चाय बागान)

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नहीं तोड़ती एक कलि दो पत्तियाँ 
कोई लक्ष्मी इन दिनों रतनपुर के बागीचे में 
अपनी नाजुक-नाजुक उँगलियों से 
और देख रहा है कोई जुगनू टेढ़ी आँखों से
बागान बाबू को, लिए जुबान पर अशोभनीय शब्द 

सिंगार-मेज के वलयाकार आईने में 
उतर रही हैं जासूसी कहानियाँ बागान बाबू के घर 
दोपहर की निष्ठुर भाव - भंगिमाओं में 

नित्य रक्त रंजित हो रहा बागान 
दिखता है लोहित नदी के समान 
इन दिनों ब्रह्मपुत्र की लहरों में नहीं है कोई संगीत 

नहीं बजते मादल बागानों में इन दिनों 
और कोई नहीं गाता मर्मपीड़ित मानुष का गीत 
कि अब नहीं रहे भूपेन हजारिका 
रह गए हैं रूखे बेजान शब्द 
और खो गयी है घुंघरुओं की पुलकित झंकार 

श्रमिक कभी तरेरते आँख तो कभी फेंकते पत्थर 
जीवन के बचे-खुचे दिन प्रतिदिन कर रहे हैं नष्ट 
मासूम ज़िंदगियाँ उबल रही है लाल चाय की तरह 
जहाँ जिंदा रहना है कठिन और शेष अहर्निश कष्ट 

बाईपास की तरह ढ़लती है सांझ चाय बागान में  
पंछी गाते हैं बचे रहने का कहरवा मध्यम सुर में 
तेज तपने लगता है किशोरी कोकिला का ज्वर 
है जद्दोजहद बचा लेने की, देखिए बचता क्या है!

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