Friday, December 9, 2016

आवाज

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तुम्हारी आवाज सुने जब बीत जाते हैं कई - कई दिन 
आँगन के पेड़ पर बैठ रूपक ताल में अहर्निश पुकारते 
कपोत की आवाज ही मुझे लगती है तुम्हारी आवाज 

तुम्हारी आवाज जैसे पतझड़ में झड़े पत्तों की विकलता 
तुम्हारा मौन जैसे झड़कर गिर जाने के बाद मोक्ष की शांति 
द्रुत विलंबित और अतिविलम्बित लय की चंद रागिनियाँ 

तुम्हारी आवाज सुने फिर बीत गए हैं कई दिन 
इसी बीच कई बार हुई बारिश और मैने सोचा 
तुम्हें खूब भाता यदि सुन पाते गीत टपकते बूंदों का 
कटहल के पेड़ से, कमरे की टीन की छत पर 
फिर सोचा कैसा लगता यदि तुम गाते काफी थाट में
कुमार गंधर्व की तरह मियां मल्हार "बोले रे पपीहरा"

नहीं, मैं नहीं पकड़ पा रही तुम्हारी ध्वनि का कम्पन 
ठीक-ठाक किसी भी शय में
जबकि वह हो रहा है संचारित मेरी स्मृतियों में, आभास में 

यदि मैं होती संगीत विशारद या संगीत अलंकार
बाँध देती तुम्हारी आवाज 
किसी ताल में, किसी राग में, किसी लय में

अभ्यास कर सिद्ध कर लेती !!

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