Tuesday, December 27, 2016

चाहतें

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​माँग ली मैंने तुमसे तुम्हारी सबसे उदास शामें
और मेघ ढंके आकाश वाली तमाम काली रातें
बदले में मैंने चाहा तुमसे केवल तुम्हारा सावन 

बाँट लिया मैंने तुमसे अपना खिला हुआ वसंत 
और संजोकर रखे बहार के अपने सपने अनंत 
आस रही कि तुम रंग दोगे मन का घर-आँगन

तुमने हरा किया मेरे पुराने जख्मों को सावन में 
वसंत और बहार अब उतरता ही नहीं आँगन में 
एकांत की नीरवता से लीपा मन के घर का प्रांगण

तुम्हारी निष्ठुरता ने जगाया मुझमें अलख ज्ञान का 
होकर बुद्ध एकाकीपन के बोधिवृक्ष तले गई जान 
कि प्रेम में जिसे चाहते हैं, उससे कुछ नहीँ चाहते

प्रेम में चाहनाओं का तर्पण ही मुक्त हो जाना है !!

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